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________________ २५२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ आजीविका के प्रश्न को हल करता है, प्रसिद्धि की लालसा में इधर-उधर भाग-दौड़ करके जीवन को विडम्बित कर रहा है, ऐसा पण्डित स्वयं सांसारिक बन्धन में जकड़ा हुआ है; वह स्वयं निःस्पृह होता तो अवश्य ही ऐसे भयों और प्रलोभनों के समय अपने सिद्धान्त पर टिका होता, झुका न होता। पर वह टिक न पाया, इसी कारण बन्धनबद्ध पण्डित गृहस्थों और समाज के बन्धन खोलने का भले ही उपदेश दे दे, पर बन्धन खोल नहीं सकता, न ही उसके उपदेश का असर किसी पर होता है। एवं करेंति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा । विणियट्टति भोगेस जहा से पुरिसोत्तमो॥ __"सम्बुद्ध, पण्डित प्रविचक्षण होकर ऐसा करते हैं, वे भोगों से वैसे ही दूर रहते हैं, जैसे कि पुरुषोत्तम रथनेमि हुए।" इस भोग-निवृत्तिपरायण वृत्ति से वह कोसों दूर रहता है। इसलिए उपदेशक और प्रश्न-समाधानकर्ता पण्डित की भूमिका और कर्तव्य को हमें समझ लेना चाहिए। पण्डितों को जैनाचार्यकृत 'पापात् डीनः पलायितः पण्डितः' (जो पाप से दूर भागता है, वह पण्डित है) व्युत्पत्ति के अनुसार पाप-कार्य से दूर रहना चाहिए । आचार्य हेमचन्द्र ने भी ऐसा ही लक्षण दिया है। वर्तमान युग के पण्डितों को तदनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए निषेवते प्रशस्तानि, निन्दितानि न सेवते । अनास्तिकः श्रद्दधान एतत् पण्डित लक्षणम् ॥ -जो प्रशस्त कार्यों का सेवन करता है, निन्दनीय कार्यों के पास नहीं फटकता, नास्तिकता से दूर रहता है, सत्य को धारण करता है, यही पण्डित के लक्षण हैं । इन और पूर्वोक्त लक्षणों के प्रकाश में पण्डित वर्ग को उपदेशक, मार्गदर्शक एवं प्रश्न-समाधानकर्ता की भूमिका निभानी है। वर्तमान युग में जनसाधारण में समालोचक दृष्टि का तेजी से विकास हो रहा है, आचरणहीन ज्ञान और निरी बौद्धिकता के प्रति लोगों की अनास्था बढ़ रही है, अतः पण्डितवर्ग को कठोर परीक्षा से गुजरना है। वह क्या और कैसा जीवन जोता है, यह समाज की आँखों से ओझल नहीं हो सकता। प्रायः देखा गया है, जब कोई पण्डित चारित्रिक विकास की उच्च भूमिका पर स्थित नहीं होता तो वह अपनी दुर्बलता को साहसपूर्वक स्वीकार करने को तैयार नहीं होता, ऐसी स्थिति में या तो दम्भपूर्वक उच्च चारित्री होने का डौल करता है, या आत्मवञ्चना करके एकान्त निश्चयनय की ओट में चारित्रिक एवं आचरणात्मक मूल्यों की उपेक्षा करता है तथा वैसा ही उपदेश देने लगता है। अतः पण्डितवर्ग को अपनी चारित्रिक दुर्बलताओं को महात्मा गांधी की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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