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________________ पूछो उन्हीं से, जो पण्डित हों २५१ "राजन् ! सचमुच आप अपने प्रश्न का उत्तर चाहते हैं ?” राजा ने कहा - " निःसन्देह चाहता हूँ।” ब्राह्मण-पुत्र - " राजन् ! तब तो उत्तर पाने के लिये मैं जो कुछ कहूँ वह आपको करना पड़ेगा । मेरा कुछ अपराध हो तो क्षमा करना ।" 1 राजा - "बेशक ! मुझे स्वीकार है, तुम्हारी बात ।” ब्राह्मण-पुत्र – “ अच्छा तो आप इस सिंहासन से उतरकर इस खंभे के पास खड़े रहिए ।" और फिर ब्राह्मण पण्डित की ओर देखकर कहा – “पिताजी ! आप भी दूसरे खंभे के पास खड़े रहिए ।" राजा कुतूहलवश बोला - "यह सब क्या तमाशा है ?" ब्राह्मण-पुत्र - "राजन् ! यह तमाशा नहीं, आपके प्रश्न का उत्तर है ।" राजा और ब्राह्मण पण्डित दोनों एक-एक खंभे के पास खड़े हो गये । ब्राह्मणपुत्र ने राजा और पण्डित को रस्सी से बांधने लगा । इस पर राजा बोला - "यह क्या उद्दण्डता है ?" ब्राह्मण-पुत्र - "यह उद्दण्डता नहीं, आपके प्रश्न का उत्तर है । शान्त रहिए ।" जब ब्राह्मण-पुत्र राजा और पण्डितजी दोनों को बाँधकर एक ओर खड़ा हो गया, तब राजा ने कहा - " अरे ! अब तो खोल । तूने तो हमें हैरान कर दिया ।" ब्राह्मण-पुत्र बोला - " राजन् ! अब आप मेरे पिताजी को कहें कि वे आपके बन्धन खोलें ।" राजा उसकी ओर देखकर बोला- “ पण्डितजी ! मेरे बन्धन कैसे खोल सकेंगे, क्योंकि वे तो स्वयं ही बन्धन में हैं ?" ब्राह्मण-पुत्र —‘“अच्छा तो, आप ही मेरे पिताजी के बन्धन खोल दीजिए ।” राजा चिढ़कर बोला – “मैं भी बंधा हुआ हूँ, कैसे खोल सकूँगा उसके बन्धन को ? बँधा हुआ व्यक्ति कहीं दूसरे के बन्धन खोल सकता है ?" ब्राह्मण-पुत्र—“तो क्या मैं आप दोनों के बन्धन खोल सकता हूँ ?” राजा -“हाँ तू खोल सकता है। जल्दी खोल, हम घबरा रहे हैं ।" ब्राह्मण-पुत्र ने दोनों के बन्धन खोल दिये और बोला - "राजन् ! मैंने आपके प्रश्न का उत्तर दे दिया है ।" राजा - " उत्तर कहाँ दिया ? हमें परेशान कर दिया, तूने ब्राह्मण-पुत्र बोला – “राजन् ! क्षमा करिये। प्रश्न का उत्तर देने के लिए यह सब करना आवश्यक था ।" ין बन्धुओ ! आप समझ गये होंगे । ब्राह्मण- पण्डित स्वयं सांसारिक बन्धन, आजीविका चले जाने का भय आदि विकारों में जकड़ा हुआ था, वह दूसरों को बन्धनमुक्त कैसे कर सकता था ! इसी प्रकार जो पण्डित स्वयं सुविधाभोगी है, आशाओं और आकांक्षाओं का गुलाम बना हुआ है, धनिकों की चापलूसी करके अपनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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