________________
अतिमानी और अतिहीन असेव्य
२०३
"जमाना बुरा है। सब मेरी व्यर्थ ही शिकायत करते हैं। मालिक अपनी आँख से नहीं देखता, वह कान का कच्चा है।" उसे यह नहीं सूझता कि उसने पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम नहीं किया।
___ हाँ तो, जितनी भी विकृत भावनाएं हैं, उनमें सबसे घातक भावना स्वयं को दीन-हीन मानने की भावना है। दैन्य या हीनभाव मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। दीनता-हीनता से पीड़ित व्यक्ति कभी सच्चरित्र नहीं बन सकता।
मैं 'नाचीज हूँ', 'तुच्छ हूँ', 'नगण्य हूँ ये शब्द कहने वाले या तो पाखण्डी होते हैं, जो दूसरों के मुंह से सुनना चाहते हैं—'आप तो राजा हैं, आप विद्वान् हैं, आप महान हैं, आप हमारे सिरताज हैं;' आदि अथवा वे गिरे हुए पतित और पापलिप्त होते हैं, जो अपने उठने को, उत्थान की प्रगति की, या पाप त्यागकर धर्मात्मा बनने की सारी आशा छोड़ चुके हैं। जो अपना आत्मविश्वास खो चुके होते हैं, जिनमें किसी भी कठिन काम को प्रारम्भ की हिम्मत नहीं होती, न कठोर कर्तव्य का पालन करने का साहस होता है, वे आत्महीनता के शिकार हैं, ऐसा समझना चाहिए। .
हीनता की भावना : क्यों और कैसे ? __ मनुष्य के मन में हीनता की भावना तब जागती है, जब वह दूसरों को अपने से अधिक सम्पन्न देखकर मन ही मन यह विचार करने लगता है-'कहाँ ये और कहाँ मैं ?' हीन भावना का शिकार जब अपने से बड़े, सभ्य, सफेदपोश लोगों को देखता है तो मन ही मन अपने आप को ज्ञान में, वेशभूषा में, धन और पद में बहुत छोटा और हीन मानने लगता है। उनके सामने जाने और बात करने में उसे झप आती है । वह जब यह देखता है कि उसके सामने उच्च शिक्षित, डिग्रियों और उपाधियों से विभूषित लोग बैठे हैं, वे विदेशी भाषा में बोलते है, अपनी भाषा छोड़कर; तब वह अपने आप में उदास और परेशान होकर घुलता जाता है ।
___ एक व्यक्ति था, वह अपनी भाषा और वेशभूषा बदल नहीं सकता था । परन्तु उसने अप-टु-डेट, शिक्षित मनुष्यों को प्रसन्न करन के लिए उनकी पसन्द के कपड़ सिलवाकर जलसे म भिजवा दिये, ताकि वहाँ लटका दिये जाय । परन्तु वे शिक्षित लोग प्रसन्न न हुए । वे तो अपने ही रंग-ढंग में उसे सजाना और बनाना चाहते थे, जिसके लिए वह तैयार न था ।
किन्तु एक दिन सभ्यों के बीच में जाकर अपने आपको वह हीन मान बैठा था । उसक अन्तर की गहराई म आत्मग्लानि घर कर गई थी।
हीनभावनाग्रस्त व्यक्ति अपने आपको बहुत पिछड़ा हुआ मान बैठता है । हर पहलू से वह विचार न करके सिर्फ एकाध पहलू स विचार करता है और अपन आपको जंगला, पिछड़ा या गंवार मान बैठता है । वह दूसरों को बताई अच्छी-बुरा सम्मति पर अपने-आप को तौलने लगता है। वह अपने अन्तर् को तराजू से अपने को नहीं तौलता, जो कि असली धर्म काँटा है। उससे तौलने पर शायद ही वह हीन जंचे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org