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आनन्द प्रवचन : भाग ११
परन्तु दूसरों की तराजू में अपने को तौलने का विचार मन में आए तो समझ लेना चाहिए कि उसका मन रोगी है । यह तौल कभी सच्चा नहीं होता। 'मैं दीन हूँ, मैं हीन हूँ' ऐसा विचार करने और मानने से मनुष्य दीन-हीन हो जाता है । 'अष्टावक्र संहिता' में कहा गया है
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि, बद्धो बद्धाभिमान्यपि । किंवदन्तीति सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥
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— जो अपने को मुक्त मानता है, वह मुक्त है और जो बद्ध मानता है, वह मान्यता या मति होती
बद्ध है । जगत् में यह किंवदन्ती सत्य कि मनुष्य की जैसी है, वैसी ही उसकी गति प्रवृत्ति होती है ।
हीनता - प्रकाशन का यह रोग प्रायः ऐसे व्यक्तियों में भी देखा जाता है, जो अपने को दुनिया का अनोखा हीरा समझते हैं । वे पहले अपना मूल्यांकन बहुत ऊंचा कर लेते हैं, परन्तु जब उनके द्वारा कल्पित अभिमान या अभिमत ठुकरा दिया जाता है, तो वे मुंह के बल नीचे गिरते हैं । पहले उनकी धारणा ऐसी होती है कि दुनिया उनको हर समय सर आंखों पर उठाये रखे, उनके साथ विशिष्ट प्रकार का व्यवहार हो, लेकिन जीवन के सागर में उन्हें भी ऊँची-नीची लहरों के थपेड़े सहने पड़ते हैं, या दूसरों की तरह चक्की में पिसना पड़ता है, तब उनके सारे स्वप्न भंग हो जाते हैं । वे अपने को अकेले, असहाय और निर्बल अनुभव करने लगते हैं। का विज्ञापन करने के लिए वे हीनता प्रगट करते रहते हैं ।
अपनी निःसहायता
दीनता की भावना तभी जागती है, जब मनुष्य किसी की अधीनता स्वीकार करता है । यह जरूरी नहीं कि हर एक नौकरी करने वाला दीन-हीन हो, जो मनुष्य अपनी योग्यता और पुरुषार्थ के भरोसे नौकर होगा, उसके स्वाभिमान पर कभी आघात नहीं पहुँचेगा । नौकरी या वेतनभोगिता का अर्थ दीन-हीन होना नहीं है, अपितु परस्पर सहयोग देना और अपने हक का - श्रम का मूल्य पाना है, अपना कर्त्तव्य करके अपना अधिकार पाना है । नौकरी करना भीख माँगना नहीं है । पर अधिकांश नौकरी करने वालों की आत्मा मर जाती है, वे अपने आपको मालिक के आगे इसलिए हीन और विवश समझ लेते हैं क्योंकि उन्हें दूसरी जगह इतना ऊंचा वेतन, इतने आराम की नौकरी मिलने की आशा नहीं होती या अपने में योग्यता और अपने पुरुषार्थं पर विश्वास नहीं होता । जो नौकरी का अर्थ पैसे के लिए, पेट के लिए, या किसी स्वार्थ के लिए काम करना या दासता के जुए में जुटना समझते हैं, वे दीनहीन हो जाते हैं । सच्चा आदमी कभी दीन नहीं बनता । वासनाओं या परिस्थितियों का गुलाम या अनैतिक उपायों से लोभ को तृप्त करने वाला व्यक्ति ही होन बनता है ।
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सामर्थ्य से अधिक वेतन पाने या पुरस्कार पाने की आशा रखने वाले व्यक्ति भी दीन-हीनता के शिकार बनते हैं। अधिक की चाह मनुष्य को अशान्त और हीनता
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