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अतिमानी और अतिहीन असेव्य २०५ का रोगी बना देती है। स्थूल दृष्टि से दूसरों के सुखी होने का अनुमान लगाकर उसकी तुलना में अपने-आपको दुःखी मानना भी हीनता का एक प्रकार है। ऊंचे दर्जे के लोगों से मेल-जोल बढ़ाने वाले लोग भी हीनता का रोग पाल लेते हैं। अपने से अधिक भौतिक वैभव, बुद्धि, बल, या तप आदि देखकर अपने मन में कुढ़ते रहना, असन्तोष व्यक्त करना भी हीनता की बीमारी है । एकान्त में किया हुआ अपराध मनुष्य के मन को बार-बार कचोटता रहता है, उससे आत्मग्लानि एवं हीनता आती है । अदण्डित अपराध को मनुष्य भी हीन बना देते हैं।
___ असुन्दर, बेडौल या खराब चेहरे वाले लोग, खासकर महिलाएं अपने आपको हीन अनुभव करने लगती हैं। ऐसी हीनता की ग्रन्थि का प्रदर्शन मन की अनेक अवस्थाओं में होता है। पागल व्यक्ति प्रायः हीनता की ग्रन्थि से पीड़ित होते हैं । बचपन की कुचली हुई इच्छाएं भी मनुष्य को हीन बना देती हैं। कई साधक विद्वान् होते हैं, परन्तु बड़े-बड़े विद्वानों, वक्ताओं का भाषण सुनकर या लेख पढ़कर उनके मन में यह भ्रम घुस जाता है कि मैं अच्छा भाषण नहीं दे सकता, मैं लेख नहीं लिख सकता; यों सदैव आत्महीनता से प्रताड़ित होकर दीन-हीन बने रहते हैं।
___ मुझे एक विद्वान् सन्त का अनुभव है, वे व्याकरण, न्याय एवं दर्शनशास्त्र के अच्छे विद्वान् हैं, शास्त्रों के ज्ञाता भी हैं, पर उन्हें भाषण देने को कोई कहे तो वे एकदम झेंप जाते हैं और अपने आपको बिलकुल असमर्थ पाते हैं, हीनभावनाओं से ग्रस्त होने के कारण वे इन्कार कर देते हैं, भाषण देने से।
कई विद्वान् लेख लिखना हो तो अपने में हीनता महसूस करते हैं। कई साधक उच्चस्तरीय साधना करते हुए भी अपने आपको नगण्य एवं तुच्छ समझ लेते हैं। जब वे दूसरों को साधना में सफल और आगे बढ़े हुए देखते हैं तो उनमें अपने प्रति हीनता-दीनता की भावना पैदा हो जाती है।
वेदव्यासजी के पुत्र श्री शुकदेवजी पहुँचे हुए आत्मज्ञानी थे, लेकिन उन्हें अपनी योग्यता का भान नहीं था। उन्हें भ्रम था कि अन्य साधक मुझसे साधना में बहुत आगे बढ़े हुए हैं । इसलिए वे अपनी आत्मिक योग्यता का भान करने एवं हीन भावना दूर करने हेतु अपने पिता की आज्ञा लेकर विदेहराज जनक के यहाँ पहुँचे । वहां के राजसी ठाठ का उन पर कुछ भी असर न हुआ। जब द्वारपालों ने उन्हें रोका और धूप में खड़ा रखा, फिर भी वे अपमान-विजयी बनकर वहाँ साधना में लीन रहे । पचासों युवतियाँ हाव-भाव एवं हास्य-विनोद करती हुई उन्हें भोजन कराने में जुटी रहीं तथा समय-असमय घेरे भी रहीं, फिर भी उन कामविजेता का मन विचलित न हुआ । वे तो सतत निर्लेप व निर्विकारी बनकर आत्मरमण करते रहे।
। दूसरे दिन महाराज जनक आये और शुकदेव का सम्मान करके उनके समक्ष बैठे । शुकदेव ने जब जनक विदेही से आत्मज्ञान की प्राप्ति कराने की मांग की, तब राजा ने कहा-"भगवन् ! आप आत्मिक ज्ञान की दृष्टि से पूर्ण हैं, सुख-दुःख एवं
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