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________________ २०६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ मानापमान आदि में पूर्णतः आत्मस्थ हैं तथा काम-भोग आदि से अनासक्त हैं-यह मैंने भली-भाँति देख लिया है। फिर भी आपके मन में अभी भ्रान्ति है कि मैं आत्मज्ञानी नहीं बन सका, बस इतनी-सी आत्मविश्वास की कमी है। आप अपनी आत्मिक योग्यता को कम मत ऑकिये।" राजा की बात सुनते ही उनकी हीनभावना समाप्त हुई, अपने में आत्मज्ञान की योग्यता का भान हुआ। नम्रता और हीनता में अन्तर __ कई बार लोग अपनी हीनता को नम्रता समझ लेते हैं। परन्तु जहाँ मिथ्या भावुकता, आत्मविश्वास की कमी और हीनता से युक्त मायूसी एवं अत्यन्त नमन हो, वहाँ नम्रता नहीं, हीनता है। नम्रता में दबैल होने का भाव नहीं होता । आत्मविश्वास, शक्ति, सद्भावना, साहस, गम्भीरता—ये विनम्रता के रूप हैं। नम्रता में शक्तिप्रियता एवं पदलोलुपता के लिए कोई स्थान नहीं है। क्योंकि ये सब अपने में स्वार्थ से सने एवं संकीर्णता से परिपूर्ण है, जबकि नम्रता में सबका ध्यान, सबसे पीछे अपने आपको गिनने का महत्त्वपूर्ण आदर्श है। स्वार्थ के लिए नम्रता में कोई स्थान नहीं, इसमें एकमात्र परमार्थ को गति है। नम्रता मानसिक भाव है, उसके बाह्य सक्रिय रूप हैं-सेवा, आत्मीयता, आध्यात्मिक एकता और समता। हीनता में ये सब रूप नहीं होते, वहाँ होती है—ग्लानि, पड़े-पड़े पश्चात्ताप, एवं निम्नता की भावना, असंतोष और अन्दर ही अन्दर कुढ़न । एक होती है-हृदयहीन नम्रता; जिसमें अभिमानी मनुष्य अपने बड़प्पन को बनाये रखने या बढ़ाये जाने के लिए झूठी नम्रता का स्वांग करता है। ऐसी दिखावटी नम्रता खतरनाक होती है। इससे सरल प्रकृति के लोग प्रायः धोखा खा जाते हैं। स्वार्थी, पदलोलुप एवं अभिमानी व्यक्तियों ने नम्रता को भी एक साधन बना लिया है, अहंकार सन्तुष्टि का। हीनभावना के शिकार बालक कभी-कभी कई बालक अपने को मातृ-पितृहीन अनुभव करके हीन भावना के शिकार हो जाते हैं। जिनके कुल आदि का पता नहीं होता या जिन्हें माँ-बाप का प्यार नहीं मिलता, ऐसे बच्चे भी हीनताग्रन्थि से ग्रस्त होते हैं । अभयकुमार ने वन में घूमकर वापस लौटते हुए रास्ते में पड़े एक नवजात शिशु को पड़ा देखा तो उनकी करुणा उमड़ पड़ी। उन्होंने बालक को उठा लिया, घर ले आए। बच्चे का नाम रखा-'जीवक' । शिक्षा-दीक्षा का भार स्वयं उठाया। जीवक बड़ा हुआ तो एक दिन उसने राजकुमार अभय से पूछा-'मेरे माता-पिता कौन हैं ?" अभय ने वह सारी घटना कह सुनाई कि किस तरह वह जंगल में पड़ा मिला था। अपने को मातृ-पितृहीन अनुभव कर जीवक को गहरी वेदना हुई । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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