SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतिमानी और अतिहीन असेव्य २०७ उसने अपने अभिभावक अभय से कहा-''महाशय ! आपने मेरी रक्षा न की होती तो अच्छा था । बताइए, आत्महीनता का भार लेकर मैं कहाँ जाऊँ ?" राजकुमार को एक बार तो यह सोचकर बड़ा दुःख हुआ कि समाज में ऐसे कितने बच्चे होंगे, जो बड़ों की भूल और असावधानी के कारण आत्महीनता के भार से दबे होंगे। उन्होंने जीवक को धैर्य दिलाते हुए कहा-"वत्स ! दुःख करने की अपेक्षा, आओ हम दोनों मिलकर प्रायश्चित्त कर लें। तुम तक्षशिला जाकर दत्तचित्त होकर विद्याध्ययन करो, जिससे अपने में पात्रता उत्पन्न करके पददलित समाज को कुछ प्रकाश दे सको और मैं आज से मगध के नैतिक उत्थान के लिये अपने आपको समर्पित करता हूँ।" जीवक ने यह बात मान ली। विद्याध्ययन के लिये तक्षशिला चल पड़ा। प्रवेश के समय आचार्य ने नाम, पिता का नाम, कुल और गोत्र पूछा तो जीवक ने बिना कुछ छिपाये स्पष्ट कह दिया। आचार्य ने सत्यवादिता से प्रभावित होकर उसे प्रविष्ट कर लिया। जीवक ने एक दिन आयुर्वेदाचार्य की उपाधि ले ली। कल उसे मगध के लिये प्रस्थान करना था। गुरु के स्नेह और जीवन की निराशाओं ने उसे बहुत दुःखी बना रखा था। रात में देर तक नींद नहीं आई । तभी प्रधानाचार्य ने पूछा-"वत्स ! तुम्हारी आँखें लाल एवं मुखाकृति उदास क्यों है ?" जीवक ने कहा"देव ! आप जानते हैं कि मेरा कोई कुल व गोत्र नहीं, मैं जहाँ भी जाऊँगा, लोग मुझ पर उँगलियाँ उठायेंगे । क्या आप इतना प्रायश्चित्त मुझे यहीं न करने देंगे कि मैं आपकी सेवा में ही बना रहूँ।" आचार्य गम्भीर थे। बोले-"वत्स ! तुम्हारी योग्यता, प्रतिभा और ज्ञान ही तुम्हारा कुल और गोत्र है। तुम जहाँ भी जाओगे, वहीं तुम्हें सम्मान मिलेगा। दुर्भाग्यग्रस्त प्राणियों की सेवा में अपने को समर्पित करना ही सबसे अच्छा प्रायश्चित्त है।" जीवक को आत्मविश्वास का प्रकाश मिला। वह आचार्य जीवक बनकर मगध में पहुँचा और सारे मगध में प्रसिद्ध हो गया। कहने का अर्थ यह है कि जिस बालक में किसी कारणवश हीनभावना घर कर जाती है, अगर वह नहीं निकाली जाती है तो वह आगे चलकर विद्रोही, हत्यारा, गुण्डा, डाकू या चोर आदि अपराधी बन जाता है। आत्महीनता से ग्रस्त व्यक्ति का जीवन अपराधी-सा जीवन होता है । उसके संसर्ग या सेवा में रहकर क्या कोई अपने जीवन को निर्दोष, पवित्र और सुखी-शान्त बना सकता है ? हीन व्यक्ति के संसर्ग में रहकर कोई भी अपना आत्मविकास नहीं कर सकता। इसीलिए दोनों का संसर्ग त्याज्य है बन्धुओ ! इस जीवनसूत्र में महर्षि गौतम ने जीवन को शुद्ध, निर्दोष, सुखी, शान्तिमय एवं आत्मविकासशील बनाने हेतु अतिमानी और अतिहीन दोनों का संसर्ग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy