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आनन्द प्रवचन : भाग ११
प्रकार का है। वास्तव में अहंकार का अतिरेक मनुष्य के जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है । अहंभाव बहुत रूपों में आदमी को पकड़ सकता है। इसीलिये अमृत काव्य संग्रह में प्रौढ़कवि शास्त्रविशारद पं० रत्न अमीऋषिजी म. ने अभिमान को असार बताकर छोड़ देने की प्रेरणा की है- अंग रंग चंग देख करे क्यों गुमान मन,
पतंग को रंग लगे उड़ता संसार है। - डाभ की अणी पै जैसे रही, उदक-कणी,
____ कागद की नाव बनी होय कैसे पार है ? चक्री चौथे सनतकुमार अभिमान कियो,
देखत विनाश भयो, ऐसो यो असार है । अमीरिख कहे भवि तप-जप-व्रत सार,
__सुकृत को धार जासु सुख श्रेयकार है । __ वास्तव में अहंकार मरणधर्मा है, नाशवान है। जो व्यक्ति अहंकार के अतिरेक म पागल हो जाता है, उसका संग करना या उसकी छाया-सेवा में रहना किसी भी प्रकार उचित नहीं है। क्योकि अहंकारी के संग से व्यक्ति में भी झूठे अहंकार का चेप लग जाता है। अहंकार का चेप मनुष्य को स्वार्थी, कृतघ्न, ईर्ष्यालु, प्रतिस्पद्धी एवं अनक दोषो से युक्त बना देता है । हीनता का अतिरेक : विकास का अवरोध
जसे अहंकार या गर्व का अतिरेक मनुष्य को उद्धत और उद्दण्ड बना देता है, वैसे ही हीनता का अतिरक भी मनुष्य को अकर्मण्यता, किकर्तव्यविमूढ़ता, निराशा और मायूसा की ओर ल जाता है । हीनभावना जिस मनुष्य में घर कर जाती है, वह अपन आपको तुच्छ, अकिचन, अशक्त, असमर्थ, दीन-हीन, नीच और विवश समझने लगता है । वह रात-दिन यो सोचता रहता है कि मैं कुछ नहीं कर सकता, मेरे से यह कार्य बिलकुल नही हो सकता; मैं तो उसके सामने कुछ नहीं हूँ, न न बाबा ! मुझसे यह हो ही नहीं सकता; इसी प्रकार की हीनभावनाओं में बहते रहने वाला व्यक्ति अपने परिवार, राष्ट्र, समाज और जाति से बिलकुल अलग-थलग हो जाता है । एक तरह से वह झपू, दब्बू, कायर और दीन बन जाता है।
हीनता की भावना मनुष्य को बिलकुल पराधीन, परमुखापेक्षी और भाग्यपरायण बना दती है । हीनता को भावना से ग्रस्त लोग स्वयं को धिक्कारते हैं, अपनी अधोगति के लिय या तो भाग्य को दोषी ठहराते हैं, या फिर निमित्तों को कोसने लगते हैं । एस लोग अपने उत्कर्ष के लिये प्रयत्न करने के बदले दुनियाभर की शिकायत करने को उद्यत रहते हैं। अपने कार्य म अयोग्य होने के कारण जब वे पदच्युत कर दिये जाते हैं तो वे अपनी त्रुटियों पर ध्यान देने के बजाय प्रायः यह कहते हैं
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