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________________ प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं ८७ कान काट लेना, यह श्रोत्रेन्द्रियबलरूप प्राण का विघात है। इसी प्रकार किसी की आँख फोड़ देना, आँखों की देखने की शक्ति नष्ट कर देना, आँखों में सलाई भोंककर उन्हें खत्म कर देना, यह चक्षुरिन्द्रियबलरूप प्राण का विनाश है। घ्राणेन्द्रिय (नाक) काट लेना, नाक की घ्राण (गन्ध) ग्रहण की शक्ति विनष्ट कर देना भी. घ्राणेन्द्रियबलप्राण से रहित करना है। रसनेन्द्रिय (जीभ) काट लेना, या जीभ की चखने या बोलने की शक्ति नष्ट कर देना रसनेन्द्रियबलप्राण से रहित करना है, इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रिय (खास तौर से जननेन्द्रिय) को काट लेना या उसकी शक्ति नष्ट कर देना स्पर्शेन्द्रियबल-प्राणातिपात है। किसी की मानस शक्ति को नष्ट कर देना, उसके मन की मनन-चिन्तन करने की शक्ति को समाप्त कर देना, उसे पागल या विक्षिप्त कर देना, मनोबलप्राण का अतिपात है। इसी प्रकार किसी की वाचिक शक्ति को बोलने की शक्ति को नष्ट कर देना, गूंगा बना देना, वाचिकबल को विपरीत कर देना वचनबल प्राणातिपात है। इसी प्रकार किसी के शरीर को क्षतविक्षत (घायल) कर देना, शस्त्र से मारपीट देना, शरीर को तीखे नोकदार शस्त्र से गोद देना, शरीर के अंगोपांगों को काट डालना, शरीर को हानि पहुँचाकर बेडौल कर देना, ऐसा कर देना जिससे शरीर से उठा-बैठा न जा सके, यह सब कायबलप्राण का अतिपात (विधात) है । इसी प्रकार किसी का श्वासोच्छ्वास रोक देना, तथा किसी को आयुष्य से रहित कर देना, ये दोनों प्राणातिपात (हिंसा) के प्रकार तो प्रसिद्ध ही हैं। प्राणियों के ये १० प्राण एक प्रकार से बल हैं, जीवनी शक्तियाँ हैं। इन प्राणों के सहारे प्राणी अपनी निर्धारित या पूर्वबद्ध आयुष्यबन्ध तक जीवित रहता है । परन्तु प्राणिहिंसा करने वाला उसे अकाल में ही समय से पहले ही नष्ट कर देता है, यही हिंसा है। पूर्वकर्मोदयवश किसी प्राणी के इन १० प्राणों में से किसी भी प्राण का स्वतः (किसी भी निमित्त से) नष्ट हो जाना, हिंसा नहीं है। इसी प्रकार प्राणायाम करने के लिए स्वयं रेचक-पूरक-कुंभक करना, श्वास रोकना, बाहर निकालना, अंदर लेना प्राणातिपात या हिंसा नहीं है, और न ही कायोत्सर्ग, मौन, त्राटक या अन्य ध्यान, योगाभ्यास या योगासन करते समय पाँचों इन्द्रियों तथा मन, वचन, काया को स्वयं रोकना, स्थिर एवं एकाग्र करना प्राणातिपात नहीं है । और न ही सकाम निर्जरा एवं कर्मक्षय हेतु किये जाने वाले अनशन, अवमौदर्य, कायक्लेश आदि किसी भी तप द्वारा स्वेच्छा से शरीर को कृश करना, इन्द्रियों को मन्दविषय बनाना या शरीर को मन्दकषाय बनाना, प्राणातिपात है। यह शरीर, इन्द्रियों आदि, पर अत्याचार नहीं है, स्वेच्छा से स्वीकृत तप है, आत्मविकास के अनुकूल शरीर इन्द्रियों और मन को बनाने की एक संयम प्रक्रिया है। द्रयहिंसा और भावहिंसा इसलिए हिंसा होना और हिंसा करना, इन दोनों में महदन्तर है, इन दोनों के पीछे परिणामों में अन्तर है । इसे एक दृष्टान्त द्वारा समझाता हूँ-एक डॉक्टर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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