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________________ ८६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ का विघात या वियोजीकरण करना प्राणों से रहित कर देना प्राणातिपात या प्राणिहिंसा है। बहुत-से स्थूल दृष्टि वाले व्यक्ति यह सोचते हैं कि किसी का श्वास बन्द कर दिया-रोक दिया अथवा किसी का आयुष्य खत्म कर दिया-इतना ही प्राणातिपात या हिंसा का अर्थ है । लेकिन यह अर्थ अधूरा और एकांगी है। किसी प्राणी का दम घोंट देना या श्वास रोक देना या आयुष्य खत्म कर देना तो प्राणातिपात या हिंसा है ही । इसके अलावा भी पाँच इन्द्रियाँ और मन, वचन और काया ये तीन बल भी प्राण हैं, इनका विघात या वियोग कर देना भी हिंसा है । जैसा कि शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांगवृत्ति में कहा है पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास-निःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दर्शते भगवद्भिरक्तास् । तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥' अर्थात्-पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल (मन, वचन और काया), श्वासोच्छ्वास एवं आयु, ये दस प्राण तीर्थकर भगवान ने कहे हैं । उनका वियोग करना-उनसे प्राणी को रहित कर देना ही हिंसा है। हाँ, तो मैं कह रहा था कि केवल एक-दो लोकप्रसिद्ध प्राणों का ही नहीं, दस प्राणों में से किसी भी प्राण से जीव को रहित कर देना हिंसा है। __बहुत-से लोग किसी प्राणी का दम घोट देने या श्वास रोक देने को हिंसा नहीं मानते । प्राचीन काल में एक खारपिटक मत था, जो किसी को तलवार, बंदूक, साठी आदि शस्त्र से मार डालने को ही हिंसा मानता था। किसी दुःखी या पीड़ित व्यक्ति के श्वास बंद कर देने को वह हिंसा नहीं मानता था बल्कि इसे 'घटचटकमोक्ष कहा जाता था। जैसे घड़े में चिड़िया को बंद करके चारों ओर से उस घड़े का मुंह बन्द कर देने पर चिड़िया अपने आप ही जीवन से मुक्त हो जाती है उसी तरह इस मत वाले लोग इस जीवन से मुक्त होने के इच्छुक व्यक्ति को एक ऐसे कमरे में बंद कर देते थे, जिसमें कहीं से भी हवा का प्रवेश नहीं होता था। फलतः वह व्यक्ति दो-चार मिनट में ही श्वास बंद होने से मर जाता था। परन्तु यह सरासर प्राणविघात है। इससे इन्कार कैसे किया जा सकता है ! किसी का कान फोड़ देना, उसकी श्रवण शक्ति को नष्ट कर देना, अथवा दण्ड देने हेतु कानों में गर्म शीशे का रस डाल देना, १ सूत्रकृतांगसूत्रवृत्ति १।१।३ २ धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनायदर्शयताम् । सटितिघटचटकमोक्षं श्राद्धयं नैव खारपिटकानाम् ॥ -पुरुषार्थ सिद्ध युपाय ८८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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