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६५. प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ !
पिछले दो प्रवचनों में इसी बात पर जोर दिया था कि 'धर्मकार्य से बढ़कर श्रेष्ठ कोई कार्य नहीं है", तब सवाल होता है कि अकार्य कौन सा है.? यों तो दुनिया में बहुत से अकार्य हैं, जिन्हें मनुष्य कु-संस्कारवश करता आ रहा है, परन्तु उन सबमें सबसे निकृष्ट अकार्य है-'प्राणिहिंसा' । इसीलिए गौतम महर्षि ने गौतमकुलक के ५२वें जीवनसूत्र में स्पष्ट बता दिया है
न पाणिहिंसा परमं अकज्ज।" 'प्राणिहिंसा से बढ़कर संसार में कोई अकार्य नहीं है।'
प्रश्न होता है-प्राणिहिंसा क्या है ? उसके मुख्य-मुख्य कितने रूप हैं ? वही सबसे बढ़कर अकायं क्यों हैं ? इस प्रवचन में हम इन सभी मुद्दों पर गहराई से चर्चा करेंगे।
प्राणिहिंसा क्या है? हिंसा के स्थान पर जैनशास्त्रों में यत्र-तत्र प्राणातिपात शब्द अधिकांश रूप में प्रयुक्त है। प्राणातिपात का सीधा-सा अर्थ है-प्राणों का अतिपात–विनाश करना । प्राण का अर्थ केवल श्वासोच्छ्वास ही नहीं है, जैनधर्म का यह पारिभाषिक शब्द है । जैनशास्त्रों में १० प्राण माने गये हैं, वे इस प्रकार हैं--
(१) श्रोत्रेन्द्रियबलप्राण, (२) चक्षुरिन्द्रियबलप्राण, (३) घ्राणेन्द्रियबलप्राण, (४) रसनेन्द्रियबलप्राण, (५) स्पर्शेन्द्रियबलप्राण, (६) मनोबलप्राण, (७) वचनबलप्राण, (८) कायबलप्राण, (E) श्वासोच्छ्वासबलप्राण, (१०) आयुष्यबलप्राण ।
इन दस प्राणों में से जितने जिस प्राणी के नियत हैं उतने प्राणों को धारण करने वाला 'प्राणी' कहलाता है। प्राणियों के उक्त १० प्राणों में से किसी भी प्राण
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