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आनन्द प्रवचन : भाग ११
निष्कर्ष यह है कि जो हिंसादि अपने लिए प्रतिकूल हैं, अपने साथ कोई वैसा ( हिंसादि का ) व्यवहार करे तो व्यक्ति तुरन्त कह उठता है, यह तो सरासर पाप है, अधर्म है, असह्य आचारहीनता या अनैतिकता है, उसी गज से उसे दूसरों के साथ व्यवहार करते समय मापना चाहिए तभी धर्म-अधर्म या पुण्य-पाप का निर्णय हो सकेगा ।
इसीलिए धर्मकार्य को श्रेष्ठ कार्य कहा बन्धुओ ! इसीलिए धर्मकार्य के बीन करने के बाद गौतम महर्षि ने कार्य कहा है ।
सम्बन्ध में पूरी तरह से ऊहापोह और छानधर्मकार्य को आचरण में लाना परम श्रेष्ठ
आप सब इस सम्बन्ध में सभी पहलुओं से गहराई से चिन्तन करें और धर्मकार्य को पहचानकर जीवन में पहला स्थान दें । इसी से आपका कल्याण होगा, आप मोक्ष के निकट पहुँच सकेंगे ।
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