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________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं है या अन्ध-विश्वासों का मैल जमा है क्या वह सब धर्मकार्य है या और कुछ ? जैसे - किसी स्त्री का पति मर जाये तो उसे अपने पति के साथ चिता में जलकर सती हो जाना चाहिए, स्त्री को पर्दा करना चाहिए, ऋतुकाल में ही स्त्रीसंगम करना विहित है, मुर्दे को जलाना या दफनाना चाहिए, अमुक के हाथ का पानी पीना चाहिए अमुक के हाथ का नहीं, छुआ-छूत, पंक्तिभेद, आदि मानना चाहिए, कल का आदा और नल का पानी धर्मविरुद्ध है, ब्राह्मण को पक्की रसोई खानी चाहिए या कच्ची ?. खड़े-खड़े पेशाब करना चाहिए या बैठकर ? शौचादि क्रिया कब और कहाँ करनी चाहिए ? गले में जनेऊ डालना धर्म है, तिलक लगाना धर्म है ? मूर्ति के सामने एक-दो पैसा फेंकना या किसी भिखमंगे को एकाध पैसा दे डालना धर्म है ? गंगा मैया में नारियल या पैसा फेंकना धर्म है ? किसी दीन-दुःखी को फटा कपड़ा या झूठा अन्न दे डाला धर्म है ? पीपल को जल पिलाना या उसके चारों ओर दो-चार चक्कर लगाने या. उसके दो चार पत्त े चबा लेने से धर्म होता है । तुलसी का एकाध पत्ता चबा लेना अगड़म-बगड़म कुछ भी जाप कर लेना, गंगा, गोमती आदि नदियों में दो चार गोते लगा लेना, मनों घी अग्नि में फूंक देना धर्म है ? चींटियों को आटा तथा बन्दरों को पकौड़े तथा किसी गाय आदि को एकाध आटे का पिण्ड खिला देने से धर्म होता है ? मैं पूछता हूँ क्या धर्म इतना सस्ता सौदा है ? जरा-सा कुछ कर देने से धर्म हो जाता हो, तब तो जितने भी दुनिया में पापात्मा हैं, वे सब धर्मात्मा कहलाने लगेंगे । परन्तु ये सब धर्मकार्य नहीं, धर्म का मजाक है । अविवेक और अन्धविश्वास में कहीं धर्म होता है ? परन्तु अधिकांश धर्मध्वजी लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए ऐसी-ऐसी तुच्छ बातों में धर्मकार्यं बताकर भोले-भाले लोगों का गुमराह किया है । इसीलिए एक कवि ने व्यंगोक्ति कसी है— --- धर्म को तो आज दुनिया ने खिलौना कर दिया । दूध के बदले में पानी का बिलौना कर दिया ।। ऐसे सब कार्यों में अपनी विवेकबुद्धि से ही धर्मकार्य - अधर्मकार्य या पुण्य-पाप कार्य का निर्णय करना चाहिए । कई धर्मसम्प्रदाय पशुबलि में धर्म मानते हैं, कई स्मृतिग्रन्थों ने ब्राह्मणों के लिए चोरी कर लेना धर्म माना है । ऐसे-ऐसे बहुत हिंसा असत्यादिमूलक विधान जहाँ धर्म माने जाते हों वहाँ सामान्य मनुष्य की बुद्धि चकरा जाती है इसीलिए बृहत् कल्पभाष्य में एक निर्णय दिया गया है Jain Education International जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छ परस्स वि एत्तियगं जिणसासणयं ॥ — जो अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए चाहना चाहिए, और जो अपने लिए नहीं चाहते, तो वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहिए, बस इतना-सा जिनशासन - वीतराग धर्मोपदेश है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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