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________________ ८२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पुण्यकोटि के हैं । मीमांसक पुण्य को ही धर्म कहते हैं। मोक्ष और यथार्थ निष्कामधर्म की कल्पना ही वहाँ नहीं हैं । मीमांसक परम्परा का अनुसरण स्मृतियों ने किया है । इसलिए वापी, कूप, तालाब आदि निर्माण कराने, अतिथि सत्कार करने तथा अन्य अनेक लौकिक व्यवहारों को वहाँ धर्म का रूप दिया गया है । लेकिन जैनधर्म उन्हीं को धर्मकार्य या धर्म कहता है, जिन कार्यों या प्रवृत्तियों के साथ वासना, कामना, स्वार्थ, लोभ, भय, प्रलोभन, यशकीर्तिलालसा, फलाकांक्षा आदि न जुड़ी हुई हो। अगर कोई परोपकार का कार्य इस कसौटी पर ठीक उतरता है तो वह धर्म या धर्मकार्य में गिना जा सकता है, अगर सत्कार्यों के साथ वासना, कामना आदि जुड़े हुए हैं तो वे शुभयोग के कारण पुण्यकार्य कहे जा सकते हैं । पुण्यकार्यों से देवायु का बन्ध मुख्यतया होता है । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा है "सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरा-बालतपांसि देवस्य ।" -सरागसंयम (कामनामूलक धर्माचरण), संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बालतप ये देवायुबन्ध के कारण हैं। प्रायः यह देखा गया है कि लौकिक परोपकार रूप कार्यों के पीछे व्यक्ति की नामबरी, प्रसिद्धि, परलोक में सुखभोगेच्छा, इहलोक में सुखकामना, साधारण स्वार्थ आदि फलाकांक्षा प्रायः रहती है इस लिए परोपकार के कार्यों -दान, पुण्य, आदि कार्यों को पुण्यकार्य ही मुख्यतया माना गया है । धर्माजित व्यवहार ही धर्मकार्य की कोटि में-अब रहे अनेकविध व्यावहारिक कार्य वे प्रायः नैतिक कर्तव्यों में परिगणित होते हैं। जो व्यवहार एकान्त धर्म से भजित-युक्त हैं, वे ही धर्मकार्य में परिगणित होते हैं। जैसा कि उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है धम्मऽज्जियं च ववहारं बुद्ध हाऽयरियं सया। तमायरंतो ववहारं गरहं नाभिगच्छइ ॥ -जो व्यवहार धर्माजित है, बुद्ध-तत्त्वज्ञ पुरुषों द्वारा सदैव आचरित है, उस व्यवहार का आचरण करता हुआ साधक गर्दा-लोकनिन्दा का भाजन नहीं होता। जैसे—कोई धर्म यह कहता हो कि कोई तेरा एक दांत तोड़े तो तू उसके दो दांत तोड़, अथवा 'शठे शाठयं समाचरेत्-दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करो,' ये और इस प्रकार के व्यवहार धर्माजित नहीं हैं, न तत्त्वज पुरुषों द्वारा आचरित हैं, इसलिए ऐसे व्यवहार धर्मकार्य में शुमार नहीं हो सकते । वे ही व्यवहार धर्मकार्य में शुमार हैं जो अहिंसा, सत्य आदि धर्मों से अनुप्राणित हों, तत्त्वज्ञपुरुषों द्वारा आचरित हों। जैसे-कोई व्यक्ति किसी के साथ सत्यतापूर्वक व्यवहार करता है, अहिंसायुक्त व्यवहार करता है, तो वह व्यवहार धर्म हो सकता है। क्या ये धर्मकार्य हैं ? .. प्रश्न होता है कि धर्म के साथ जो विविध परम्पराओं का जाल बिछा हुआ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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