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________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं - २ ८१ साम्प्रदायिक कर्त्तव्य और धर्मकार्य में अन्तर - प्राय: साम्प्रदायिक कार्य व्यापक धर्म के विरुद्ध होता है, अनुकूल नहीं । साम्प्रदायिक कर्त्तव्य से व्यापक धर्मकार्य का दायरा भी विशाल होता है । साम्प्रदायिक कर्त्तव्य तो सिर्फ अपने सम्प्रदाय की नीति - रीति, नियमोपनियम, संविधान आदि तक ही सीमित होता है, लेकिन धर्म ( सत्य, अहिंसादि) तो मानवमात्र ही नहीं, प्राणिमात्र के हित तक व्यापक होता है । इसलिए नीति या कर्त्तव्य की तरह साम्प्रदायिक कर्त्तव्य के सम्बन्ध में भी निर्णय किया जा सकता है कि जो साम्प्रदायिक कर्त्तव्य व्यापक सद्धर्म का पोषक हो, सत्यअहिंसादि का पालन करने में सहायक हो या पूरक हो, व्यापक धर्म का विरोधी न हो, उसे धर्मकार्य में परिगणित किया जा सकता है । जैसे कि किसी सम्प्रदाय ने यह विधान किया कि दूसरे सम्प्रदाय वालों के साथ किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं करना चाहिये, क्योंकि इससे मिथ्यात्व का पोषण होगा । या एक सम्प्रदाय वाले 'धर्म खतरे में है' कहकर दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को मारने-काटने का आदेश दे देते हैं तो ऐसा करना अहिंसा-धर्म के विपरीत होने से तथा मानवता विरुद्ध होने से वह धर्मकार्य नहीं बल्कि हिंसा (पाप) कार्य समझा जाएगा। इसी प्रकार धर्मकार्य के नाम पर साम्प्रदायिकता फैलाई जाती हो, या धर्मकार्य की ओट में जहाँ पोपलीला (अनुयायियों से धन ऐंठने की कला ) चलती हो, व्यभिचार, अत्याचार, अनाचार, अन्याय, अनैतिक धन्धा आदि चलते हों, वहाँ तो वह सरासर अधर्मकार्य या पापकार्य है । पुण्यकार्य और धर्मकार्य का घपला जैनधर्म में एक बात खासतौर से समझाई गई है कि पुण्य और धर्म दोनों एक नहीं हैं । पुण्य शुभकर्मबन्धजन्य है, जबकि धर्म शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों (पुण्य-पाप) का क्षयरूप होता है । इसलिये यह स्वाभाविक है कि पुण्यकार्य और धर्मकार्य में अन्तर रहे । वैदिक धर्म के विशिष्ट धर्म-ग्रन्थों में पुण्यकार्य और धर्मकार्य को एक मान लिया गया है । जैसे कि महाभारत का एक श्लोक, जो पंचतंत्र में उद्धत है संक्षेपात् कथ्यते धर्मो जनाः किं विस्तरेण वः । परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥ अर्थात् हे मनुष्यो ! संक्षेप में ही धर्म मतलब ? वह है - परोपकार पुण्य के लिए है, और परोपकार से पुण्य और परपीड़न से पाप होता है । यहाँ धर्म का वर्णन करते हुए परोपकार रूप पुण्य को ही धर्म माना है, और परपीड़न को पाप । इसी प्रकार और भी ऐसे राहत के कार्यों को धर्म माना है, इसका क्या कारण है ? बात यह है— वैदिक धर्म की मीमांसक परम्परा में कामनामूलक धर्म को ही धर्म माना गया है । वहाँ स्वर्गादि कामनाओं से प्रेरित जितने भी विधान हैं, वे वस्तुत: Jain Education International कह रहा हूँ, तुम्हें विस्तार से क्या परपीड़न पाप के लिए। यानी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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