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________________ ८० आनन्द प्रवचन : भाग ११ धर्म के अन्तर को स्पष्ट कर दूं-विभीषण रावण के मंत्रिमण्डल का एक सदस्य था। विभीषण का कर्तव्य था-रावण और उसके राज्य के प्रति वफादारी रखना और उसके राज्य की नीति-रीत से सम्मत होना। किन्तु जब रावण नैतिकता को छोड़कर सीता का जबर्दस्ती अपहरण करके ले आया । राम के बार-बार सीता को लौटाने के सन्देश आने पर भी रावण ने सीता नहीं सौंपी । ऐसी अनीति पर जब रावण उतर आया, तब विभीषण ने रावण को समझाया-सीता को लौटा देने के लिए तथा उस अनैतिक कार्य का विरोध भी किया, तब रावण ने उसे कहा-"विभीषण ! तू अपने कर्तव्य का पालन कर । तुझे मैंने मंत्री पद दिया है, सब तरह की सुविधाएं भी दी हैं फिर मेरे व्यक्तिगत मामले में तू क्यों बोलता है ? चुपचाप रह ।" परन्तु विभीषण ने कहा-“कर्तव्य से धर्म बड़ा है । धर्म कहता है-राम का पक्ष न्याय-नीति एवं धर्म से युक्त है जबकि आपका पक्ष अन्याय-अनीति और अधर्म से युक्त है।" रावण जब नहीं माना बल्कि राज्य की सेना को अपने व्यक्तिगत, अनैतिक कार्य के लिए लड़ाई में झौंकने को उद्यत हो गया, तब विभीषण ने रावण का विरोध किया, मंत्रिमण्डल में से वह निकल गया । श्रीराम के धर्मयुक्त पक्ष में चला गया। यह है कर्तव्य और धर्म में संघर्ष या विरोध हो, वहाँ संकुचित कर्तव्य को छोड़कर धर्म को अपनाने का ज्वलन्त उदाहरण । फिर भी एक बात का निर्णय हम कर सकते हैं-यदि कर्तव्य धर्म से अनुप्राणित हो, धर्म के साथ उसका विरोध न हो तो वह धर्मकार्य में परिगणित किया जा सकता है । असल में तब वह कर्तव्य न रहकर धर्मकार्य बन जाता है । एक उदाहरण लीजिए एक किसान था। उसने अपने खेत में उत्पन्न अन्न का एक बोरा अगली सीजन में बोने के लिए रखा था। किन्तु अचानक उसका गाँव दुष्काल की चपेट में आ गया। किसान का चिन्तन चला इस समय खाने के लिए अन्न तो सभी दुष्काल-पीड़ितों को सरकार देती है। परन्तु आगामी फसल के लिए बोने को अनाज मेरे गाँव के किसानों के पास नहीं रहेगा तो वे बोयेंगे क्या ? नहीं बोयेगे तो अगले वर्ष फिर अन्न की भीख मांगकर परिवार को जिलाने की नौबत आयेगी। इससे तो अच्छा है मैं अपने पारिवारिक कर्तव्य को छोड़कर सारे गाँव के प्रति कर्तव्य की ज्योति जलाऊं। मुझे अकेले को बोने को अन्न न मिले तो भी कोई परवाह नहीं । फलतः उस किसान ने बोने के लिए सारे गाँव को अन्न दिया। दूसरों को जिलाकर जीने का सूत्र धर्मकार्य का ही तो है। जो तथ्य कर्तव्य और धर्मकार्य के अन्तर का ऊपर बताया गया है, वही नैतिक कार्य और धर्मकार्य में समझ लेना चाहिए। नीति और कर्तव्य ये दोनों धर्म से अविरोधी या धर्म से अनुप्राणित हों, तब तो ये धर्मकार्य के अन्तर्गत हैं। यदि ये दोनों धर्मकार्य के विरोधी या धर्म से वियुक्त हों, तो फिर ये धर्मकार्य में परिगणित नहीं होंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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