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________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं - २ ७६ हैं । सब सामान तो कल कुर्क हो जायेगा । जेल भी हो सकती है । ऐसी अवस्था में यदि एक बार भाईजी " ... के रुपये बरत लिए जायें, तो क्या हर्ज है ? यह तो आपद्धर्म है । दो-तीन महीने बाद जब रुपये आएंगे, तब वापस जमा रख दिये जायेंगे; या उनकी पत्नी को ही दे देंगे ।" बात यह थी कि उस व्यापारी के व्यापार में घाटा लग गया। हाथ तंग हो गया । ईमानदार होने पर भी वह कर्ज ली हुई रकम का भुगतान न कर सका । एक फर्म ने उस पर नालिश करके दो लाख रुपयों की डिग्री ले ली । उसकी वसूली के लिए कुर्की तथा वारंट का आदेश निकल चुका था । इस व्यापारी के पास एक मित्र के ढाई लाख रुपये के नोट रखे थे । उनकी मृत्यु को १० ही दिन हुए थे । रुपये उनकी पत्नी को देने । इस व्यापारी के खुद के रुपये २-३ महीने के बाद विदेश से आने वाले थे । इसी से इसकी पत्नी ने उपर्युक्त बात कही थी । परन्तु धर्मनिष्ठ पति ने उससे कहा - " ऐसा नहीं होगा । हमारे रुपये अगर विदेश से न आये तो हम भाईजी की पत्नी को कहाँ से देंगे ? मित्र की इस धरोहर छूने का हमारा अधिकार नहीं है । यदि कल सोमवार को कुर्की में ये नोट भी चले गये तो हम मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे, नरक में जायेगे । मैं तो यह अमानत की रकम आज ही उन (मित्र) की पत्नी को देकर आऊंगा । यद्यपि उसे इसका पता नहीं है तथापि हम और सर्वज्ञ प्रभु तो सब कुछ जानते ही हैं ।" उसकी सरल हृदय पत्नी आगे कुछ न बोली । वह व्यापारी उसी दिन ही वह रकम अपने स्वर्गीय मित्र की पत्नी को दे आये । दूसरे दिन कुर्की आने वाली थी, परन्तु धर्मनिष्ठा का चमत्कार ऐसा हुआ कि पहले से ही सुरक्षा व्यवस्था हो गई । जो चार लाख की राशि विदेश से आने वाली थी, उसकी टी०टी० आफिस में जाते ही मिल गई । जहाँ कुर्की की आशंका थी, वहाँ अनायास ही सब रुपयों का भुगतान हो गया । जो डेढ़ लाख असल थे, वे व्यापारी को मिल गये शेष रकम से सब का भुगतान हो गया । यह है धर्मकार्य पर दृढ़निष्ठा का चमत्कार ! कर्त्तव्य भी धर्मकार्य में कब और कब नहीं— कर्त्तव्य और धर्मकार्य इन दोनों पर जब हम विचार करते हैं तो ऐसा मालूम होता है— कर्तव्य का दायरा धर्मं से छोटा भी हो सकता है । जैसे— परिवार के प्रति कर्त्तव्य होता है, इसी प्रकार जाति, धर्मसम्प्रदाय, नगर या ग्राम, प्रान्त, देश और विश्व के प्रति कर्त्तव्य भी होता है । कर्त्तव्य का दायरा उत्तरोत्तर विशाल होता है, जबकि धर्म का दायरा सार्वत्रिक और सार्वजनिक होता है । वहाँ जो धर्म एक व्यक्ति के प्रति होता है वही समाज, राष्ट्र या विश्व के सभी प्राणियों के प्रति होता है, धर्म में कोई अन्तर या विरोध नहीं पड़ता, वह शाश्वत होता है । कर्त्तव्य में परस्पर विरोध आ सकता है । एक राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य से प्रान्त के प्रति कर्त्तव्य में विरोध आ सकता है । प्रान्तीय कर्त्तव्य का राष्ट्रीय कर्त्तव्य के साथ विरोध हो सकता है । परन्तु अहिंसा, सत्य आदि प्रान्तीय धर्म और राष्ट्रीयधर्म में कोई विरोध नहीं आता । एक उदाहरण द्वारा कर्त्तव्य और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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