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________________ ७८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ हुई थी। मैने कई जगह और भी छोटी-मोटी चोरी करवाई हैं । पर अब मुझ ऐसा लग रहा है कि यह सब पापकर्म था । मेरी अपराध वृत्ति का कुफल था । एक अच्छे नागरिक को चोरी-डकैती जैसा पापकर्म कभी नहीं करना चाहिए। मैं समझता हूँ कि साहसी मनुष्य वही है, जो अपने अज्ञान में की गई भूल के लिए प्रायश्चित्त करने में संकोच न करे । आप इसकी जो भी उचित सजा हो, मुझे दिलवाइये ।" थानेदार साहब डकैत का आत्मसमर्पण देखकर चकित रह गये । उन्होंने जिज्ञासावश पूछा - "अब आगे तुम्हारा क्या करने का विचार है ?" आगन्तुक - " मैं अब धार्मिक बनकर अपने जीवन में अच्छाई अपनाना चाहता हूँ । जितनी भी बन सके, मैं भलाई करना चाहता हूँ । अब तक डकैत बने रहने में मैं गर्व अनुभव करता था, अब सज्जन कहलाने की इच्छा रखता हूँ । मैंने टक्करें खाकर यही सीखा है कि शराफत का जीवन ही स्थायी और शान्तिमय जीवन है। परोपकार, सेवा आदि धर्मकार्य ही मनुष्य के सहज कर्त्तव्य है । उसी से आत्मा को शान्ति मिलती है । अपराधों और पापकार्यों से नहीं ।" थानेदार - " तब तो मैं तुम्हें अदालत से माफी दिलवाऊंगा । एक गिरे हुए व्यक्ति को ऊंचा उठाना और सज्जन बनाना भी तो धर्म का कार्य है ।" थानेदार साहब ने कोशिश भी की और अन्त में वे अपने शुभ मनोरथ में सफल होकर रहे । इस प्रकार एक पापकार्य-परायण व्यक्ति पापी जीवन से ऊबकर धर्ममय जीवन के पथ पर आया, तभी उसे सुखशान्ति मिली । सचमुच, धर्मकार्यनिष्ठा का चामत्कारिक परिणाम आये बिना नहीं रहता । धर्मकार्य का प्रत्यक्ष फल — कई बार मनुष्य यह सोचता है कि धर्मकार्य का फल तो अभी प्रत्यक्ष मिलता नहीं है, इस कारण वह धर्मकार्य से विमुख, निरुत्साहित होकर झटपट किसी न किसी अधर्मकार्य या पापकार्य में फँस जाता है । परन्तु जिनके हृदय में धर्म के प्रति दृढ़ निष्ठा है, वे धर्मकार्य से विचलित नहीं होते । कई बार मनुष्य केवल बाहरी दिखावे के लिए बहुत-सी धर्मक्रियाएं कर लेता है या करता रहता है, वह न तो उस धर्मक्रिया के अनुसार अपना आचरण बनाता है, और न ही उस धर्मक्रिया को भी समझबूझकर, श्रद्धा और निष्ठा से करता है; वह लकीर का फकीर बनकर उस धर्मक्रिया को करता है । स्थूल दृष्टिवाले लोग समझते हैं कि यह बहुत-सी धर्मक्रियायें करता है, इसलिए धर्मकार्य-परायण है, धर्मात्मा है; परन्तु वास्तव में वह वैसा होता नहीं है । इस कारण भी तथाकथित धर्मकार्य का फल वास्तविक धर्मकार्य के फल से विपरीत आता है । जो लोग किसी प्रकार की फलाकांक्षा के बिना श्रद्धा, धैर्य एवं निष्ठापूर्वक धर्मकार्य करते जाते हैं, उन्हें उसका वास्तविक फल देर-सबेर मिले बिना नहीं रहता । एक पत्र में पढ़ी हुई सच्ची घटना बताता हूँ — एक धर्मकार्यनिष्ठ व्यापारी बहुत मुसीबत में था । अतः उसकी धर्मपत्नी ने सलाह दी - "हम इस समय बहुत ही विपत्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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