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मूलस्रोत
अप्पा · दुरप्पा अणवट्ठियस्स । अप्पा जियप्पा सरणं गई अ॥११॥ अनवस्थित की आत्मा शत्रु । तथा जितात्मा स्वयं शरण है ।।११।। न धमकज्जा परमत्थि कज्ज । न पाणिहिंसा परमं अकज्जं ॥ न पेमरागा परमत्थि बंधो । न बोहिलाभा परमत्थि लाभो ॥१२॥ धर्म कार्य ही श्रेष्ठ कार्य है, हिंसा सबसे बड़ा अकाज । परम-बंध है प्रेम-राग का, बोधि-लाभ है उत्तम लाभ ॥१२॥ न सेवियव्वा पमया परक्का । न से वियव्वा पुरिसा अविज्जा ॥ न से वियव्वा अहिमाणि-हीणा । न सेवियव्वा पिसुणा मणुस्सा ॥१३॥ पर-प्रमदा की करो न वांछा, अज्ञानी का संग नहीं । वचो, नीच-अभिमानी जन से, चुगलखोर का संग नहीं ।।१३।।
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