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________________ मूर्ख और तिर्वच को समान मानो १२५ (१) नीच कार्य करके प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा रखता है। (२) शत्रु के साथ मित्रता करता है, मित्रों के साथ द्वेष । (३) स्वयं करने योग्य कार्य नौकरों से कराता है। (४) शीघ्र करने योग्य कार्यों में बहुत विलम्ब करता है। (५) कोई न पूछे तो भी अपने आप बड़बड़ाता रहता है । (६) मेहनत किये बिना ही अलभ्य वस्तु पाना चाहता है। (७) दण्ड देने योग्य न हो, उसे दण्ड देता है। (८) अकारण ही दूसरों के घर जा बैठता है। (९) जिससे याचना करना योग्य नहीं, उससे याचना करता है । (१०) स्वयं निबल होते हुए भी बलबान के साथ वैर बांध लेता है। (११) अल्प धर्मलाभ से ही जो थककर बैठ जाता है। (१२) स्वयं सम्पन्न होने पर भी दूसरों को आश्रय नहीं देता है। (१३) प्रशंसा से फूलकर कर्ज करके भी खर्च करता है। ये सब दुर्गुण मूरों की दुराग्रही वृत्ति एवं अहंकार के कारण आते हैं । ___मूर्ख को पकड़ : बहुत गहरी इसी दुराग्रही वृत्ति के कारण मूर्ख की पकड़ बहुत गहरी होती है । वह या तो किसी बात को ग्रहण ही नहीं करता या फिर अगर वह किसी बात को पकड़ लेता है, तो जल्दी छोड़ता नहीं। अपनी मूर्खता के कारण वह जगह-जगह बार-बार हंसी का पात्र भी बनता है, नुकसान भी उठाता है, परन्तु प्रायः वह अपनी मूर्खता को मूर्खता समझता ही नहीं। वास्तव में वह व्यक्ति उतने अंश में मूर्ख नहीं है, जो अपनी मूर्खता को जानता है; वास्तविक मूर्ख तो वह है, जो मूर्ख होते हुए भी अपने आपको पण्डित समझता है। मूर्ख व्यक्ति किस प्रकार अपनी मूर्खता को न समझकर एक ही बात को पकड़कर हंसी का पात्र बनता है, इसके लिए एक रोचक उदाहरण लीजिए एक कृषक-पुत्र को किसी कार्यवश दूसरे गांव जाना था। अकस्मात् ही यह अवसर आया था। उसे गाँव में अपना कार्य निपटाकर शाम को वापस लौटना था। अतः उसे सुबह होने से पहले ही घर से रवाना होना था। उसकी मां ने तब तक रोटी नहीं बनाई थी। भाता ले जाने के योग्य कोई वस्तु बनी हुई थी नहीं। उसके अकेले जाने का यह पहला ही मौका था । माँ ने उसे कुछ शिक्षा दी और कहा-"बेटा ! घर में अभी कोई खाने की चीज बनी हुई नहीं है, जो तुझे भाते में दे दूं। ले, यह ढब्बु पैसा (दो पैसे का टका) ले जा, भूख लगे तो इससे कुछ खरीदकर खा लेना । मुफ्त में मांगकर कहीं कुछ मत खाना।" लड़के ने माता की सीख गांठ बाँध ली और घर से चल पड़ा। उसे जिस गाँव में जाना था, वहाँ पहुँच गया और काम निपटाकर वहाँ से घर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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