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६६. परस्त्री-सेवन सर्वथा त्याज्य
प्रिय धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं जीवन के एक नैतिक पहलू की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ । नैतिक जीवन अच्छा हुए बिना धार्मिक जीवन कदापि अच्छा नहीं हो सकता; क्योंकि नीति और धर्म दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध रहा है, एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता । नीतिविहीन धर्म अन्दर से सड़े हुए, किन्तु ऊपर से पालिश किये हुए तख्ते की तरह थोथा है, इसी प्रकार धर्मनिरपेक्ष नीति राजनीति या स्वार्थनीति बनकर मनुष्य को पतन के गर्त में डाल देती है। इसीलिए महर्षि गौतम ने यहाँ से आगे क्रमशः नीति और धर्म की सापेक्षता बताते हुए प्रेरणात्मक जीवनसूत्र दिये हैं । गौतमकुलक का यह ५५वाँ जीवनसूत्र है, वह इस प्रकार है
'न सेवियव्वा पमया परक्का' -~-पराई स्त्री का सेवन नहीं करना चाहिए।
आइए, इस नैतिक जीवनसूत्र पर नैतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक आदि सभी पहलुओं से विचार करें।
परस्त्री-सेवन की व्याख्या परस्त्री वह कहलाती है, जिसके साथ विधिवत् पाणिग्रहण न हुआ हो। कई लोग यह कहा करते हैं कि जो स्त्री अभी तक किसी की पत्नी नहीं बनी है, कुँआरी कन्या है अथवा जो वेश्या है, रखैल है, व्यभिचारिणी है अथवा जिसका पति मर चुका है, वह परस्त्री कैसे कहलाएगी ? उसके साथ सहवास करने में क्या दोष है ? परन्तु नीतिशास्त्र और धर्मशास्त्र सभी एक स्वर से यही कहते हैं, जिसके साथ विधिवत् पाणिग्रहण हुआ हो, वह स्वस्त्री-स्वपत्नी है, उसके अतिरिक्त जितनी भी स्त्रियाँ हैं, चाहे वे कुमारिकाएँ हों, सधवा हों, विधवा हों, प्रोषितभर्तृका हों, वेश्या हों, रखैल हों, दासी या गोली हों, थोड़े समय के लिये किराये पर रखी गई हों, उपपत्नी हों, किसी पुरुष द्वारा परित्यक्ता हों, अथवा और कोई-सभी परस्त्री की कोटि में परिगणित होती हैं। ऐसी किसी भी परस्त्री का सेवन करना नैतिक अपराध है, सामाजिक दूषण है, धार्मिक दृष्टि से व्यभिचार है, राजनैतिक दृष्टि से कानूनन गुनाह है।
परस्त्री-सेवन का अर्थ केवल परस्त्री के साथ कुशील-सेवन करना या दुराचार करना मात्र ही नहीं है, अपितु परस्त्री के प्रति किसी भी रूप में कामवासना
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