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आनन्द प्रवचन : भाग ११
सूराख करते ही दोनों युवकों ने उसमें बारूद भर दी। फिर उन्होंने कुछ दूर जाकर सूराखों से जुड़ी बत्तियों में आग लगा दी । तत्काल एक तेज विस्फोट हुआ। सारी पहाड़ी काँप उठी, चारों ओर धुआ उठने लगा और वह गर्वीली चटटान टुकड़ेटुकड़े हो गई। उसका अस्तित्व अब ऐसा हो गया कि छोटे बच्चों की टोली भी उसे आसानी से इधर-उधर फेंक सकती थी। बड़ी चटटान का मिथ्या गर्व चूर-चूर हो गया। परन्तु छोटी चट्टान निरुत्साह और कायर होकर वहीं पड़ी रह गई, वह कोई भी परोपकार का उपक्रम न कर सकी।
ये दोनों चित्र दो प्रकार की अतियों से ग्रस्त जीवन के प्रतिनिधि हैं । इन दोनों ही प्रकार के जीवन उपादेय नहीं हो सकते और न ही अनुकरणीय हो सकते हैं।
अगर किसी की आँखों में दूर की रोशनी न हो तो वह भी ठीक नहीं होता, साथ ही किसी की आँखों में नजदीक की रोशनी न हो तो वह भी उचित नहीं। जिन आँखों में दूर की चीज देखने की शक्ति नहीं होती, वे आँखें केवल अपने नजदीक की चीजों को स्पष्ट देख पाती हैं । इसी प्रकार जिस व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में गौरव ग्रन्थि (Superiority Complex) का रोग हो, अहं के हाथी पर चढ़ा हुआ वह मानव केवल अपने और अपने निकटवर्ती सम्बन्धियों को ही देख पाता है, दूरवर्ती विश्व के प्राणियों को नहीं। उसका सबसे निकटवर्ती है—अहं-मैं और मेरा (मम)। इसी प्रकार जिस में लाघवग्रन्थि (Inferiority Complex) का रोग लग गया हो, वह दूर की वस्तुओं को देख पाता है, निकटवर्ती वस्तुओं को नहीं । अर्थात् भूतकालीन व्यक्ति अन्य देशीय व्यक्ति अथवा भविष्यकालीन बातों को वह बढ़ा-चढ़ाकर देखता है, परन्तु वर्तमानकालीन या अपने से निकटवर्ती वस्तुओं या व्यक्तियों को नहीं देख पाता। वह अपनी जगह बैठा-बैठा हीनभावनाओं से पीड़ित होकर अपने उत्थान की बात नहीं सोच सकता । अपने जीवन-विकास के लिए प्रयत्न करने में वह हिचकिचाता है । वह अपने आपका ठीक मूल्यांकन नहीं कर पाता । दूर के डूंगर सुहावने लगते हैं उसे । वह अपने में किसी महापुरुष के बनने की योग्यता, क्षमता और शक्ति नहीं पाता ।
___ इस प्रकार गौरवग्रन्थि और लाघवग्रन्थि ये दोनों मानसिक रोग हैं, दोनों ही अपने जीवन के विषय में स्वस्थ दृष्टिकोण नहीं रखते । दोनों अपना ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं कर पाते । एक अपना मूल्यांकन बहुत अधिक कर लेता है, उसे दुनिया के दूसरे लोग दिखते ही नहीं । दूसरा अपना मूल्यांकन बहुत ही कम करता है उसकी दृष्टि में दूसरे बहुत महान् दिखते हैं, भूतकालीन लोग या भविष्यकालीन लोग उसकी दृष्टि में अधिकाधिक बुद्धिमान, शक्तिमान, भक्तिवान या चारित्रवान जचते हैं, वर्तमानकालीन लोग अल्पातिअल्प लगते हैं । या उसको स्वयं वह अत्यन्त तुच्छ, अशक्त, निकृष्ट, अयोग्य, अक्षम या अकर्मण्य लगता है।
संत विनोबा भावे ने एक बार कहा था-"संसार में दो तरह के पाप (पाप
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