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अतिमानी और अतिहीन असेव्य
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युक्त व्यक्ति) हैं । एक की गर्दन जरूरत से ज्यादा तनी हुई है-घमंड के कारण, अभिमान के कारण और दूसरे की गर्दन जरूरत से ज्यादा झुकी हुई है-दीनता से, दुर्बलता से । ये दोनों ही पापी हैं । एक उन्मत्त है, दूसरा दबैल-दुर्बल ।
वैसे गर्दन सीधी भी होनी चाहिए, लचीली भी, लेकिन तनी हुई न हो, और न अत्यन्त झुकी हुई हो। इसीलिए आचारांग सूत्र में बताया गया है-'नो हीणे नो अइरित्ते'-अपने आपको न अत्यधिक हीन माने और न ही अत्यधिक अतिरेकी।
निष्कर्ष यह है कि गौरव-भावना का शिकार हो या हीनभावना का शिकारये दोनों ही अपने आप में पापयुक्त हैं, दोनों ही स्वस्थ और शुद्ध जीवन के प्रतीक नहीं हैं। इसलिए इन दोनों का संग त्याज्य समझना चाहिए। अब हम विभिन्न पहलुओं से प्रत्येक का विश्लेषण करते हैं
अतिमानी : आसुरी शक्ति का पुजारी प्रत्येक कार्य में, कभी सफलता और कभी असफलता भी मिला करती है । असफलता मिलती है तो मनुष्य सोचने को मजबूर हो जाता है कि उसने कहाँ गलती की है ? मुझे कहाँ क्या सुधार करना चाहिए ? क्या करना उचित था ? अपनी गतिविधियों में नम्रतापूर्वक सुधार कर लेने पर जहाँ बिगड़े काम के बनने की संभावना बन जाती है, वहाँ सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि मनुष्य को अपनी वृत्तियों और आदतों को सुधारने का अवसर मिलता है । यही सुधार सफलता का व्यवस्थित प्रशिक्षण देकर भविष्य की प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर देता है।
इस तरह असफलता प्रायः मनुष्य को नम्र और सहृदय बनाती है, कटुवादी सहृदय मित्र की तरह लाभदायक सिद्ध होती है । परन्तु सफलता मिलती है तो दूसरे लोग उसकी प्रशंसा करते हैं और व्यक्ति सफलता के नशे में हर्ष से उन्मत्त हो जाता है, उसका हौंसला बढ़ जाता है, ये और इस प्रकार के सफलता के लाभ सर्वविदित हैं । लेकिन उसमें एक बुराई भी छिपी रहती है, जो दिखने में तो छोटी दिखाई देती है, किन्तु उसके दुष्परिणामों को देखते हुए वह बहुत भयंकर प्रतीत होती है। यदि उसकी ओर से सावधान न रहा जाये तो वह बहुत हानिकारक भी सिद्ध होती है। इस बुराई का नाम है-अभिमान या अहंकार । सफलता पाकर मनुष्य इतराने लगता है, वह अपनी औकात भूल जाता है, अपनी गलतियों का संशोधन नहीं करता है, सफलता के मद में वह सोचने लगता है--मैं बड़ा बुद्धिमान, चतुर और पुरुषार्थी हूँ। मैं हर दिशा में शीघ्र ही सफलता प्राप्त कर सकता हूँ।
मनुष्य जब गौरवग्रन्थि से ग्रस्त हो जाता है, तब वह अपने आपको सबसे बढ़कर उच्च, महान और श्रेष्ठ समझने लगता है, अपने आसपास के तथा अपने समाज एवं राष्ट्र के अन्य व्यक्तियों को अपने से तुच्छ एवं हीन समझने लगता है । वह जरा-सी प्रभुता पाकर मद में छलकने लगता है। अहंत्व अभिमान, दर्प या अहंकार से पीड़ित
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