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________________ जितात्मा ही शरण और गति–१ २७ काम करता था। यह सब पूर्वतयारी करके वह एक तख्ता लेकर समुद्र में कूद पड़ा, ताकि उसके सहारे से किनारे पहुँच सके। शोष्ठिपुत्र महाजातक ने सोचा-ऐसे समय में जहाज का त्याग कर देना ही उचित है, क्योंकि जहाज की अपेक्षा आत्मा बड़ा है। जहाज अब सुरक्षा नहीं कर सकता। यद्यपि समुद्र में कूदने से मृत्यु का भय तो है, पर सुरक्षा का दूसरा उपाय भी तो साथ में है । धैर्यपूर्वक संकट का सामना करना ही उचित है। अधीर व्यक्ति ऐसे विकट संकट के समय किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, उनकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है । वे सोचकर किसी प्रकार का निर्णय नहीं कर पाते। उन्हें एक ओर कुंआ और दूसरी ओर गहरा गडढा दिखाई देता है। किन्तु ऐसे प्रसंग पर बुद्धि का सन्तुलन न खोकर स्थिरबुद्धि से निर्णय करना ही बुद्धिमत्ता है। जो संकट और विपदाओं से घिर जाने पर भी कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय कर लेता है, वही वास्तव में धीर और बुद्धिमान है । जो ऐसा निर्णय नहीं कर पाता, वह आफतों से घिर जाता है, और पद-पद पर विपत्तियाँ आकर उसके मार्ग को अवरुद्ध कर देती हैं। व्यावहारिक क्षेत्र में ही नहीं, आध्यात्मिक क्षेत्र के विषय में भी यही बात है। धैर्यनिष्ठ पुरुष उचित निर्णय करके संकटों पर विजय पा लेते हैं। अधीर पुरुष संशय और भय में पड़े रहते हैं। श्रोष्ठिपुत्र ने संशयात्मक स्थिति में पड़े रहने की अपेक्षा झटपट निर्णय कर लिया कि जहाज को बचाने की अपेक्षा, इस समय अपने आपको बचाना जरूरी है। मृत्यु का खतरा तो दोनों जमह है, लेकिन बिना यथोचित पुरुषार्थ किये कायर की तरह मर जाने की अपेक्षा पुरुषार्थ करके मर्द की तरह मर जाना बेहतर है। सफलता के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना ही इस समय मेरा धर्म है। जो पहले से ही सफलता की प्रतीक्षा करके कार्य प्रारम्भ करता है, वह कार्य के लिए साहस नहीं कर सकता, सफलता के बदले असफलता मिलने पर वह रोता-धोता. और पछताता रहता है । अतः धैर्यवान् व्यक्ति सफलता-असफलता की प्रतीक्षा और चिन्ता किये बिना निष्कामभाव से कर्तव्यमार्ग में हट जाता है और अन्त तक टिका रहता है। धैर्यनिष्ठ घोष्ठिपुत्र महाजातक लकड़ी के तख्ते के सहारे हाथ-पैर मारता हुआ समुद्र में बह रहा था। उस समय समुद्र के देव ने उसे यों उद्यम करते देख सोचा-मृत्यु सिर पर खड़ी है, फिर यह युवक समुद्र पर तैरने की व्यर्थ चेष्टा क्यों कर रहा है, पूर्व तो सही। देव ने निकट आकर उससे पूछा-ऐसे भयंकर तूफान के समय समुद्र को तैरकर पार करना बहुत ही कठिन है। मौत तुम्हारे सामने खड़ी है, फिर क्यों ऐसा अनावश्यक श्रम करके अपनी मूर्खता प्रकट कर रहे हो ? अब तो हाथ पैर हिलाना छोड़कर, भगवान का नाम लो। देव की बात सुनकर महाजातक हताश नहीं हुआ, वह हाथ-पैर चलाता हुजा समुद्र पर तैरता रहा। उसने देव से पूछा-"आप कौन हैं ?" उसने कहा"मैं इस समुद्र का देव हूँ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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