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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ११ महाजातक - " आप देव हैं आपको तो सत्कार्य के लिए उद्यम करने का उपदेश देना चाहिए, लेकिन आप तो डूब मरने का उपदेश दे रहे हैं । रही भगवान् का नाम जपने की बात, सो मृत्यु से बचने के लिए भगवान् का नाम लेना मैं कायरता समझता हूँ । यों अपने कल्याण के लिए तथा मृत्यु भी आये तो हंसते-हंसते सहन करने की शक्ति के लिए मैं परमात्मा का स्मरण अवश्य करूंगा । अतः आप मुझे विपरीत उपदेश देकर बहकाइये मत । " 1 २८ महाजातक का उत्तर एक धीर और वीर पुरुष का उत्तर था । उसके उत्तर में उसकी धीरता और बुद्धिमत्ता टपकती थी । देव उसके उत्तर से प्रभावित हुआ 1 सोचा - मृत्यु के समय भी यह मानव कितना निर्भय है ! अतः देव ने फिर पूछा"उद्यम करना तो ठीक है, मगर उसके फल का तो विचार करना चाहिए । जहाँ फल - प्राप्ति की सम्भावना न हो, उस उद्यम को करना तो निरर्थक है न !" महाजातक - "हाँ, मैंने फल का विचार करके ही यह प्रयत्न शुरू किया है । इस उद्योग का पहला फल है-अपनी प्राप्त शक्ति का उपयोग करके संतोष पाना; दूसरा फल है - आप जैसे देव का मिलना । अगर मैं जहाज के साथ ही डूब मरता तो आप सरीखे देव कैसे मिलते ? मैंने धैर्य रखकर साहस किया, तभी तो आपके दर्शन हुए ।" देव इस उत्तर से बहुत प्रसन्न हुआ । बोला- “ तो तुमने मुझ से रक्षा करने की प्रार्थना क्यों नहीं की ?” महाजातक — “देवता प्रार्थना की अपेक्षा नहीं रखते, वे तो जिसे भी धर्मंयुक्त कार्य में मग्न देखते हैं, तथा जिसका तन-मन प्रसन्न होता है, जो अपने कर्त्तव्य में संलग्न होता है, उस पर वे स्वतः प्रसन्न होते हैं । इसके अतिरिक्त अगर आप प्रार्थना करने पर मेरी रक्षा करते तो मेरा कर्तव्य-गौरव कम हो जाता । बिना ही प्रार्थना के प्रसन्न होकर आप मेरे कार्य में सहायक होंगे तो आपका भी गौरव बढ़ेगा, मेरा भी । मैं आपका भी गौरव कम नहीं करना चाहता, और न अपने कर्त्तव्य का महत्त्व घटाना चाहता हूँ ।" देवता ने प्रसन्न होकर जहाज के सहित उसे किनारे लगा दिया और प्रशंसा करते हुए कहा - "तुम-सा धीर और पुरुषार्थी दूसरा पुरुष तो क्या देव भी मैंने नहीं देखा । वास्तव में धैर्य और पुरुषार्थ में तुम्हारी शक्ति हम से बढ़ी चढ़ी है ।" वास्तव में देखा जाए तो महाजातक धैर्य-निष्ठा की परीक्षा में उत्तीर्णं हुआ । इसी कारण वह संकट पर विजय प्राप्त कर सका । यही विजितात्मा का दूसरा लक्षण है । जितात्मा : बुद्धि पर विजयी जो व्यक्ति सच्चा आध्यात्मिक होता है, वह राजसी और तामसी बुद्धि पर या चंचल और मारक बुद्धि पर पूरा काबू पा लेता है, तथा सात्त्विक बुद्धि को भी अपने नियंत्रण में रखता है । जब भी कभी भय और प्रलोभन के अवसर आते हैं, तब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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