________________
२६
आनन्द प्रवचन : भाग ११
पिता ने उसे बहुत समझाया कि “बेटा ! अपने घर में धन की कोई कमी नहीं है, फिर क्यों तू विदेशयात्रा का व्यर्थ कष्ट सहता है ? पता है तुझे, जहाज से समुद्र-यात्रा करने में बहुत ही खतरे हैं।" किन्तु लड़का धीर, पुरुषार्थी और कष्टसहिष्णु था। उसने कहा-'पिताजी ! आपका कहना यथार्थ है, किन्तु आपने भी तो धनोपार्जन करने में कष्ट-सहन किये होंगे ? फिर क्या मेरे लिए यह उचित होगा कि मैं स्वयं परिश्रम के बिना ही इसका उपभोग करूं? यदि मैंने बिना श्रम किये ही आपकी उपार्जित सम्पत्ति का उपभोग किया, उसी से ऐश-आराम करने लया तो कदाचित् आप मेरे प्रति पुत्रवात्सल्य होने के कारण कुछ न कहें, लेकिन दुनिया तो कहे बिना न रहेगी । उसका मुह कैसे बन्द किया जायेगा ? बिना कमाए इस धन का उपभोम करने से मेरी बुद्धि बिगड़ेगी, मैं मिटटी के पुतले के समान निरुद्यमी, आलसी और परमुखापेक्षी बन जाऊंगा । जब मैं पुरुषार्थ कर सकता हूँ, तब अकर्मण्य बनकर बैठे रहना, बिना कमाये आपकी सम्पत्ति का उपभोग करना, मुझे अनुचित लगता है। अतः कृपया आप आज्ञा और आशीर्वाद दीजिए कि मैं विदेश जाकर कुछ कमाऊँ ।"
पिता ने अपने पुत्र की कर्तव्यनिष्ठा, साहस और विनम्रता देखकर कहा"बेटा ! तेरी बात तो ठीक है। सुपुत्र का कर्तव्य है-पिता के धन और यश में वृद्धि करे । पुरुषार्थी बनना तो प्रत्येक मानव का कर्तव्य है । तुम्हारी प्रबल इच्छा है तो हम तुम्हें रोकना नहीं चाहते।" ... इस प्रकार माता-पिता से विदेश यात्रा की अनुमति पाकर श्रेष्ठिपुत्र ने एक जहाज तैयार करवाया। उसमें समुद्र-यात्रा में आवश्यक वस्तुएं भी रखवा दी। ठीक समय पर वह जहाज में बैठा । जहाज रवाना हुआ। जहाज जब बीच समुद्र में पहुँचा कि अकस्मात् समुद्र में तूफान उठा। जहाज उछलने लगा, और डूबने की स्थिति में हो गया। मल्लाहों ने जी-तोड़ मेहनत की, जहाज को बचाने की, मगर वे सफल न हुए । हार-थककर उन्होंने कह दिया-"अब हमारा वश नहीं चलता । जहाज थोड़ी ही देर में समुद्र में डूब जाएगा। जिसे अपनी सुरक्षा का जो उपाय करना हो, वह करे।"
ऐसे बिकट संकट के समय कायर पुरुष प्रायः रोता-चिल्लाता है, हाय-तोबा मचाता है, या निमित्तों को कोसता है; मगर धैर्यनिष्ठ पुरुष तटस्थ और शान्त होकर सुरक्षा का उपाय सोचता है और यथायोग्य पुरुषार्थ करता है।
श्रेष्ठिपुत्र ने जब मल्लाहों की सूचना सुनी तो कुछ चिन्सन करके शौचादि से निवृत्त हुमा । उसने अपना पेट साफ किया। फिर ऐसे पदार्थ खाए जो वजन में हलके थे, किन्तु अधिक समय तक शक्तिदायक एवं पौष्टिक थे। इसके बाद सारे शरीर में तेल मालिश करवाई, जिससे समुद्र के खारे पानी का चमड़ी पर बसर न हो सके। तत्पश्चात् एक चर्मवस्त्र पहना, जो जल-जन्तुओं से शरीर-रक्षा के लिए कवच का
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org