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परस्त्रीसेवन सर्वथा त्याज्य १६७
परस्त्रीसेवन : स्वस्त्रोसेवन से अधिक भयंकर पाश्चात्य देशों में और उनकी देखा-देखी भारतवर्ष में भी बहुत से लोग इस विचार के होते जा रहे हैं कि विवाह करके क्यों स्त्री-पुरुष एक दूसरे के बन्धन में पड़ें ? स्त्री किसी एक पुरुष की होने पर उसे सन्तान के पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा. संस्कार, विवाह आदि बन्धनों में जकड़े रहना तथा पुरुष की आज्ञाधीनता में रहना पड़ता है। इसी प्रकार पुरुष को किसी एक स्त्री के साथ विवाह करने से उसके साथ बँध जाना पड़ता है। उसके सभी निजी खर्चों को वहन करना पड़ता है। उसके वस्त्र, आभूषण, फैशन-शृंगार तथा अन्य किसी मौज-शौक के लिए खर्च करना पड़ता है, संतान होने पर उसके जन्म से लेकर विवाहित होने तक का सारा खर्च पुरुष को करना पड़ता है। अत: विवाहित होकर पति-पत्नी के रूप में बंधन को क्यों स्वीकार किया जाए ? विवाहित होकर इन स्थायी खर्चों में पड़ने के बजाय जिस समय मन में कामेच्छा उत्पन्न हो तभी स्त्री-पुरुष अपने-अपने मनोनीत किसी पुरुष या किसी स्त्री से पैसे फेंककर सहवास कर लिया जाए और कामेच्छा पूर्ति होने के बाद दोनों एक-दूसरे से अलग हो जायँ ।
ऐसे बहुत-से व्यर्थ खर्चों से बचने का क्या यह उपाय सही नहीं है ? फिर ऐसे लोगों का यह भी कुत्सित विचार है कि स्वस्त्री या स्वपति से विषय-भोग करने और परस्त्री या परपति के साथ करने में क्या अन्तर है ? रज-वीर्य दोनों में समान ही तो नष्ट होता है; बल्कि स्वस्त्री स्वपति के साथ तो खुली छूट होने के कारण विषय-भोग पर कोई नियंत्रण नहीं रहता, जबकि परस्त्री या परपति के साथ विषयभोग तभी सेवन किया जाएगा जब कामेच्छा प्रबल होगी।
__ लाटी-संहिता में भी इसी प्रकार का एक प्रश्न उठाकर उसका समाधान किया गया है कि विषय-सेवन करते समय जो क्रिया धर्मपत्नी में की जाती है, वही क्रिया दासी में की जाती है, अतः क्रिया में भेद न होने से उन दोनों (दासी और पत्नी) के सेवन में भेद नहीं होना चाहिए?
इसका समाधान यह दिया गया है कि परिणामों में शुभत्व-अशुभत्व का अन्तर होने से कर्मबन्ध में भी मन्दता-तीव्रता आदि के कारण पत्नी और दासी दोनों के सेवन में महदन्तर आ जाता है । स्वपत्नी-सेवन में विषय-लालसा इतनी तीव्र व अशुभ नहीं होती, जबकि दासी या अन्य स्त्री के सेवन में विषय-लालसा तीव्र एवं अशुभ होती है । पानी एक ही प्रकार का होने पर भी चन्दन और रेतीली जमीन आदि का स्पर्श पाकर पात्रभेद से नाना रूप में परिणत हो जाता है, तथैव धर्मपत्नी एवं दासी आदि के साथ एक-सी क्रिया होने पर भी पात्रभेद से परिणामों में अन्तर होने से कर्मों के भी शुभाशुभ बन्ध में अन्तर पड़ जाता है।
१. लाटीसंहिता, २११८६ से १६५ तक तथा २०६, २१२, २१६ श्लोक
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