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आनन्द प्रवचन : भाग ११
यह तो हुआ शास्त्रीय दृष्टि से समाधान । अब लीजिए धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र एवं अनुभव की हाट से समाधान
पतिव्रता स्त्री और प्रेमिका में धार्मिक दृष्टि से जमीन-आसमान का अन्तर होता है । पतिव्रता पत्नी को शास्त्र में सहधर्मचारिणी, धर्मपत्नी या धर्मसहाया कहा गया है, प्रेमिका धर्मसहाया या सहधर्मचारिणी कदापि नहीं होती, बल्कि धर्मभ्रष्ट करने वाली एवं पतन के गड्ढे में डालने वाली होती है। पतिव्रता नारी के गुणों की जरा-सी झांकी वाल्मीकि रामायण में राम-लक्ष्मण संवाद में मिलती है
कार्येषु मंत्री, करणेषु दासी, धर्मेषु पत्नी क्षमया धरित्री। भोज्येषु माता, शयनेषु रम्भा, रंगे सखी, लक्ष्मण ! सा प्रिया मे ॥
रामचन्द्रजी लक्ष्मण को सीता का परिचय देते हुए कहते हैं-'लक्ष्मण ! मेरी वह प्रिया (सीता) विविध कार्यों (कर्तव्यों) में मंत्री-समान परामर्शदात्री है, कार्यों को निपटाने में दासी के समान है, धर्मकार्यों में पत्नी है, क्षमागुण के कारण पृथ्वीसम है, भोजनादि कार्यों में मातृ-सम है, शयन में रम्भा है, तथा आमोद-प्रमोद में सखी है।
मतलब यह है कि लज्जा, दया, क्षमा, सेवा, स्नेह, धर्माचरण वृत्ति, शील, सन्तोष, शान्ति, सच्चरित्रता आदि मुख्य गुण जो पतिव्रता में होते हैं, वे गुण परस्त्री या प्रेमिका में प्राप्त होने अत्यन्त कठिन हैं ? प्रेमिका में लज्जा-अकार्य करने में कोई शर्म नहीं होती, अपने विषयानन्द में बाधक बनने वाले पुत्र, पति, श्वसुर आदि की भी हत्या करते हुए उसे संकोच नहीं होता, अत: दया और क्षमा के गुण कहाँ से होंगे, उसमें ? जो सेवा पतिव्रता गृहिणी कर सकती है, क्या वैसी परस्त्रीया प्रेमिका कर सकती है ?
जो कामभोग के कीड़े हैं, वे दुर्विषयभोग को ही विवाह का लक्ष्य समझते हैं, लेकिन विवाह का यह लक्ष्य कदापि नहीं है। पाश्चात्य संस्कृति के लोग इस विषय में बहुत पिछड़े हुए एवं अनुभवहीन हैं । यद्यपि उन्हें यह अनुभव तो बाद में हो ही जाता है कि जो सुख-शान्ति, स्नेह, निश्छलता, सेवाभावना स्वस्त्री में होती है, वह कदापि प्रेमिका या परस्त्री में नहीं होती। पाश्चात्यजन न तो विवाह का ही शुद्ध लक्ष्य समझते हैं और न ही ब्रह्मचर्य से प्राप्त होने वाले संयमी जीवन के आनन्द को जानते हैं। जब कि भारतीय संस्कृति में विवाह का लक्ष्य पति-पत्नी दो आत्माएँ मिलकर विषय-वासना को सीमित एवं नियंत्रित करते हुए उससे ऊपर उठकर पूर्ण ब्रह्मचर्य की ओर बढ़ना माना गया है । ब्रह्मचर्यपथ पर जाने में परस्पर एक दूसरे की दुर्बलताओं को दूर करना और सहयोग देना है।
__निष्कर्ष यह है कि स्वविवाहिता स्त्री दुर्विषयभोग के लिए नहीं होती, जब
१. भारिया धम्मसहाइया धम्मविइज्जिया धम्माणुरागरत्ता समसुहदुक्खसहाइया।
-उपासकदशांग
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