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________________ परस्त्रीसेवन सर्वथा त्याज्य १६६ कि परस्त्रीगमन केवल दुर्विषभभोग की दृष्टि से ही किया जाता है। वहां कोई उदात्त लक्ष्म है ही नहीं। परस्त्री जब तक जवान और विषयभोग-योग्य रहती है, तब तक ही अपनाई जाती है, उसके साथ आजीवन आत्मीय सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए उसके बीमार पड़ जाने, अंगविकल हो जाने, असुन्दर हो जाने या रस निचुड़ जाने पर दूध में पड़ी मक्खी की तरह उसे निकाल फेंका जाता है, और परस्त्री भी प्रेमी के क्षतवीर्य हो जाने, नपुंसक हो जाने, अंगभंग हो जाने या असाध्य रोग से आक्रान्त हो जाने पर उसे छोड़ देती है, उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखती । इसके विपरीत भारतीय पतिव्रता नारियों के तो ऐसे-ऐसे आश्चर्यजनक उदाहरण मिलते हैं कि पति कुरूप हो, अंगविकल हो, नामर्द हो गया हो, लकवे आदि दुःसाध्य रोगों से ग्रस्त होने पर भी उस की धर्मपत्नी आजीवन सेवा करती रही है। सौराष्ट्र में बालम्भी गांव की एक गुर्जरक्षत्रिय की पत्नी का पति विवाह के एक-दो वर्ष बाद ही पक्षाघात रोग से पीड़ित हो गया । लेकिन उसकी पत्नी ने करीब १६ वर्ष तक-जब तक वह जीवित रहा तब तक अग्लानभाव से सेवा की। कभी सेवा से मुंह नहीं मचकोड़ा। एक भैस उसने रखी थी, उसी का दूध बेचकर वह अपनी आजीविका चलाती थी और इस पति-सेवा के अवसर को वह अपना सौभाग्य समझती थी। क्या परस्त्री इस प्रकार की सेवा अपने प्रेमी की कर सकती है ? यही नहीं, पुरुष भी क्या अपनी प्रेमिका (परस्त्री) की विपन्नावस्था में इस प्रकार से सेवा कर सकता है ? परन्तु भारतीय संस्कृति का वरदान ही ऐसा है कि पत्नी रुग्ण हो और घर में अन्य कोई महिला सेवा करने वाली न हो तो पुरुष भी उसकी आत्मीयभाव से सेवा करता है। मांडलनिवासी रतिलाल मघाभाई शाह के जीवन की एक घटना है। एक बार उनकी धर्मपत्नी के पैर में सड़ान हो गई। स्वयं चल-फिर नहीं सकती थी, न ही स्वयं टट्टी-पेशाब कर सकती थी। घर में एक अर्धअंधी वृद्ध माता और एक नन्हीं बालिका भारती के सिवाय और कोई नहीं था। पत्नी को अपने पति (रतिभाई) से सेवा लेने में संकोच हो रहा था। लगातार ६ महीने तक पत्नी को स्वयं रतिभाई दवाखाने ले जाते थे, क्योंकि आर्थिक स्थिति तंग होने के कारण घर पर डॉक्टर बुलाना सम्भव नहीं था। फिर जब उसके पैर पर प्लास्टर चढ़ाया गया, तब कुछ दिन तो पड़ोस की कुछ बहनें लोकव्यवहार के कारण मलमूत्र साफ कर जातीं, किन्तु रोज किसी को कहने में पति-पत्नी दोनों को संकोच होता था। अत: रतिभाई ने साहस करके अपने पुरुषत्वाभिमान को तिलांजलि देकर प्रतिदिन पत्नी का मल-मूल फेंकने और टब साफ करने एवं अन्य सेवा करने का कर्तव्य निभाया। उनकी पत्नी की आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे। सचमुच रतिभाई ने वंश परम्परागत कुसंस्कारों के कवच को छिन्न-भिन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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