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________________ १६६ आनन्द प्रवचन : भाग ११ देते हैं । वीर्य नष्ट हो जाने के कारण उसके शरीर-बल, स्वास्थ्य, उत्साह, वीर्य (पराक्रम) आदि नष्ट हो जाते हैं । जैसे गर्म तवे पर पानी की बूंद डालते ही वह नष्ट हो जाती है, वैसे ही व्यभिचार की आग में उसका सारा सत्त्व जल जाता है । इसीलिए मनुस्मृतिकार कहते हैं दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः। दुःखभागी च सततं, व्याधितोऽल्पायुरेव च ॥ नहीदृशमनायुष्य लोके किचन दृश्यते । यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम् ॥ -दुराचारी पुरुष लोक में निन्दित होता है। वह सदा दुःखी, रोगग्रस्त एवं अल्पायु होता है। इस संसार में पुरुष का आयुष्य बल क्षीण करने वाला ऐसा कोई भी कार्य नहीं है, जैसा कि परस्त्रीसेवन । परस्त्रीगामी के पास चाहे कितना ही धन हो, उसका तन और मन सदैव अस्वस्थ एवं कलुषित बना रहता है । इस कारण उसका इहलौकिक जीवन तो दुःखमय बनता ही है, पारलौकिक जीवन भी घोर दुःखमय बनता है, क्योंकि उसे अपने भयंकर पाप के फलस्वरूप नरकयात्रा करनी पड़ती है, जहाँ भयंकर यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। _____ महात्मा गाँधीजी परस्त्रीसेवन की बुराइयों का वर्णन करते हुए लिखते हैं -"जहाँ परस्त्रीसेवन नहीं होगा, वहाँ ५० प्रतिशत डॉक्टर बेकार हो जाएंगे।" - परस्त्रीगमन के कारण सुजाक, आतशक, भंगदर, टी. बी. (राजयक्ष्मा), केंसर आदि भयंकर बीमारियाँ हो जाती हैं । सारी जिन्दगी भर वह इलाज कराते-कराते थक जाता है, घर का सारा धन स्वाहा हो जाता है । परस्त्रीगमन से होने वाले इन भयंकर रोगों की दवाइयाँ भी ऐसी ही विषैली होती हैं। उन दवाइयों से एक रोग नष्ट होता है, तो दूसरे रोग शरीर में घर करने लगते हैं। कई रोग तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते हैं। कभी-कभी तो परस्त्रीगामी की परस्त्रीगमन करते ही तत्काल मृत्यु भी हो जाती है। . इन सब कारण-कलापों को देखते हुए ही महर्षि गौतम ने, नहीं-नहीं; सभी धर्मों के महापुरुषों ने, नीतिज्ञों ने, संस्कृति के उन्नायकों और समाजविज्ञानशास्त्रियों ने परस्त्रीसेवन को एकस्वर से निषिद्ध, त्याज्य और अकार्य बताया है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् में परस्त्रीसेवन को अनार्य कर्म बताया है। योगशास्त्र में भी स्पष्ट कहा है प्राणसन्देहजननं परमं वैरकारणम् । लोकद्वयविरुद्धं च परस्त्रीगमनं त्येजत् ॥ -परस्त्रीगमन प्राणनाश'के सन्देह को उत्पन्न करता है, परम वैर का कारण है, और इहलोक-परलोक दोनों के विरुद्ध है। इसलिए परस्त्रीगमन को सर्वथा त्याज्य समझना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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