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________________ परस्त्रीसेवन सर्वथा त्याज्य १६५ परस्त्रीसेवन : नैतिक पतन-परस्त्रीसेवन नैतिक पतन के सभी रास्ते खोल देता है । परस्त्रीगामी पुरुष नीति-अनीति का कोई विचार नहीं करता। वह सामाजिक जीवन में अत्यन्त निन्दित और घृणित होता है। परस्त्रीगामी पुरुष पर कोई भी स्त्री, यहाँ तक कि उसकी अपनी लड़की या बहन भी, विश्वास नहीं करती। उसकी पत्नी का भी उस पर से विश्वास उठ जाता है। परस्त्रीगामी को नई-नई स्त्रियों से दुराचार करने का चस्का लग जाता है, तब उसकी पत्नी उसे अच्छी नहीं लगती। इस प्रकार पति-पत्नी के बीच मनमुटाव हो जाने तथा पत्नी को परस्त्रीगामी पति से असन्तोष हो जाने के वह भी व्यभिचारणी बन जाती है। प्रायः स्त्रियाँ परपुरुषगामिनी नहीं होती किन्तु जब परस्त्रीगामी पुरुष स्वयं विवाह के समय की हुई एकपत्नीव्रत की प्रतिज्ञा पर दृढ़ नहीं रहता, तब अपनी पत्नी को वह परपुरुषगामिनी बनने के लिए बाध्य कर देता है। इसीलिए नैतिक मर्यादा यह बाँधी गई कि पुरुष अपनी विवाहिता पत्नी में ही सन्तुष्ट और मर्यादित रहे, इसी तरह स्त्री भी अपने विवाहित पति में सन्तुष्ट एवं अनुरक्त रहे। उपासकदशांग सूत्र के वें अध्ययन में महाशतक श्रावक का वर्णन आता है । महाशतक की स्त्री रेवती मांसभक्षिणी थी, किन्तु महाशतक पर अनुरक्त थी। इस कारण महाशतक ने यह निश्चय किया कि अगर मैं रेवती का त्याग कर दूंगा तो सम्भव है वह व्यभिचारिणी बन जाए। इससे मालूम पड़ता है कि मांससेवन की अपेक्षा व्यभिचार महाशतक श्रावक की दृष्टि में मांसभक्षण से अधिक नहीं तो उसके समकक्ष पाप अवश्य था, बल्कि एक दृष्टि से मांसाहार की अपेक्षा व्यभिचार नैतिक पतन का अधिक प्रबल कारण है। परस्त्रीसेवन : पारिबारिक अशान्ति का कारण व्यभिचार नैतिक जीवन का सर्वनाश कर देता है। परस्त्रीगामी पुरुष अपने नैतिक जीवन को नष्ट करता है सो करता है, अपनी सन्तति में भी ऐसे कुसंस्कार और दुर्गुणों का चेप लगा देता है । क्योंकि माता-पिता के सदाचार-दुराचार या सद्गुण-दुर्गुण का प्रभाव उसकी संतति पर पड़े बिना नहीं रहता। परस्त्रीगामी पुरुष स्वयं तो बदनाम होता ही है, अपने परिवार और पत्नी को भी बदनाम कर देता है, अपने कुल को भी कलंकित करता है। उसका अपनी पत्नी से सदा कलह होता रहता है । उसके संतान या तो होती ही नहीं, होती है तो दुर्बल, रुग्ण और दुराचारिणी होती है। परिवार में अशान्ति बनी रहती है। परस्त्रीसेवन : स्वास्थ्य का शत्रु-परस्त्रीगामी का जीवन दूषित, भ्रष्ट, कलंकित और पापपूर्ण रहता है, इसका प्रभाव उसके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़े बिना नहीं रहता। शीघ्र ही उसे भय, क्रोध, दैन्य, शोक, अपमान, हीनभावना, निरुत्साह, अधैर्य, चिड़चिड़ाहट आदि मानसिक रोग घेर लेते हैं। परस्त्रीगामी की संचित कीर्ति र हो जाती है। कीर्ति नष्ट होने के साथ ही धन-वैभव भी उसे तिलांजलि दे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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