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________________ २१८ आनन्द प्रवचन : भाग ११ किन्तु जो उच्च स्थिति में पहुँचे हुए हैं, उनकी प्रगति देखकर असन्तोष से कढ़ते रहते हैं, उनसे ईर्ष्या करते हैं। उस ईर्ष्या को सफल करने के लिए वे उच्च स्थिति में पहुँचे हुए लोगों की निन्दा करते हैं, उन्हें बदनाम करते हैं, उनके विषय में झूठी एवं बनावटी बातें गढ़कर उनकी चुगली करते हैं। चुगली या पैशुन्य का मूल कारण दूसरों की प्रशंसा या बढ़ती सहन न करना है। अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति चुगलखोर अपने पुरुषार्थ द्वारा न करके दूसरों की निन्दा-चुगली से करता है। ऐसे लोग पुरुषार्थ की कठोर पगडंडी पर चलने की अपेक्षा यही ठीक समझते हैं कि आगे बढ़े हुओं की टाँग पकड़कर पीछे घसीटा जाए, आगे बढ़ने से रोका जाए, उनको निन्दा की जाए, उनके विषय में झूठी बातें (अफवाहें) फैलाकर उन्हें नीचा दिखाया जाए, उन्हें हानि पहुँचाई जाए। चुगलखोरी के साथ-साथ अनेक क्षुद्र मनोवृत्तियों का साम्राज्य है । कुढ़न और ईर्ष्या की आग में झुलसते रहने वाले व्यक्ति अपना तो मानसिक अहित करते ही हैं, अपनी इस जलन को बुझाने के लिए जो षड़यन्त्र रचते हैं, उस व्यक्ति के प्रति लोगों को भड़काने के लिए निन्दा, चुगली आदि में अपनी इतनी शक्ति खर्च करते हैं कि यदि उतनी शक्ति की बचत करके किसी उपयोगी कार्य में लगाई जाती तो बहुत उन्नति हो गई होती। पिशुन और निन्दक लोगों का जितना समय और मनोयोग इन दुष्प्रवृत्तियों लगता है, यदि उतना समय आत्मकल्याण या दूसरों की सेवा-सहायता में लगता तो कितना हितसाधन हो सकता था ? चुगलखोर की मूर्खता पर जितना गम्भीरता से विचार किया जाता है, उतनी हो उसकी व्यर्थता और हानि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगती है। चुगलखोर : छिद्रान्वेषी, गुणद्वषी चुगलखोर में छिद्रान्वेषण की वृत्ति मुख्य होती है। वह दूसरों के दोष ही दोष ढंढ़ता है। ऐसे छिद्रान्वेषी प्रकृति के लोगों को सारी दुनिया बुराइयों से भरी, दुष्ट, दुराचारी और स्वशत्रु दिखाई देती है। अपनी दोषदृष्टि के कारण वह अपने चारों ओर नारकीय वातावरण तैयार कर लेता है। निन्दा और आलोचना के अतिरिक्त वे किसी के प्रति अच्छे भाव प्रकट ही नहीं कर सकते। किसी की प्रशंसा के शब्द उनके मुख से निकलते ही नहीं । ऐसे लोग अपनी इस क्षुद्रता के कारण सबके बुरे बने रहते हैं । पीठ पीछे की हुई निन्दा अतिशयोक्तिपूर्वक उस व्यक्ति के पास जा पहुँचती है, जिसके प्रति बुरा अभिमत प्रकट किया गया था। सुनने वाले लोग प्रायः अपनी विशेषता एवं हितैषिता प्रकट करने के लिए उस सुनी हुई बुराई को उस तक पहुँचा देते हैं, जिसके सम्बन्ध में कटु अभिमत प्रकट किया गया था। ऐसी दशा में वह भी प्रतिशोध की भावना से शत्रुता का ही रुख धारण करता है और धीरे-धीरे उसके विरोधियों और शत्रुओं की संख्या बढ़ती जाती है। श्री त्रिलोक काव्य संग्रह में भी इसी बात का समर्थन किया गया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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