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वन्दनीय हैं वे, जो साधु
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साधु का अन्तिम गुण ब्रह्मचर्य है, जो साधु जीवन को सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा देता है । ब्रह्मचर्य शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक सभी प्रकार की शक्तियों से साध को सुदृढ बना देता है। ब्रह्मचर्य से जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। इससे वह इन्द्रियविजेता, मनोविजयी, कषायों और विषयों का वशकर्ता बनता है। ब्रह्मचर्य का जहाँ भलीभाँति अर्थ न समझकर केवल शारीरिक रूप से पालन होता है, वहाँ इन्द्रियों का स्वाद रह जाता है, इन्द्रियलोलुपता, दबी हुई इन्द्रियविषयों की लिप्सा दुगुने वेग से साधक को पछाड़ देती है । कामवासना का शिकार साधु जीवन के किसी भी क्षेत्र में न तो सफल हो सकता है और न ही वन्दनीय होता है । गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में
वंदनीय ते जग-जस पावा। वह नहीं हो पाता । ब्रह्मचर्य गुण के बिना साधुजीवन शक्तिहीन है, खोखला है। ब्रह्मचर्य को पचाकर स्व-पर-कल्याण साधना में उससे उत्पन्न शक्ति को लगाने वाला साधु धन्य और अभिवन्दनीय बन जाता है । ये दस मुख्य गुण ही साधुजीवन को देदीप्यमान करते हैं । इन्हीं गुणों से साधुता अभिवन्दनीय होती है ।
वेष से वन्दनीय साधु : कब और कब नहीं ? केवल वेष से ही कोई साधु वन्दनीय नहीं कहा जा सकता। अमुक वेष, यह अमुक सम्प्रदाय का साधु है, इस प्रकार की पहचान के लिए है; किन्तु वेष तो साधु का हो मगर अन्दर साधुता न हो, साधुगुण न हों तो वह साधु वैसे ही है, जैसे किसी दूकान पर साइनबोर्ड लगा हो 'ज्वेलरी' हाउस (जवाहरात का घर) का, लेकन अन्दर जवाहरात के बदले काच के टुकड़े मिलते हों, इमीटेशन सोना हो या कलचर मोती हो, या कोयला भरा हो । अथवा किसी बोतल पर लेबल लगा हो–'बादाम का शर्बत' का, लेकिन अन्दर केवल सफेद मीठा पानी भरा हो।
परन्तु वेष के साथ तदनुरूप साधुता का आचरण हो, साधुत्व का व्यवहार हो, अर्थात् वेश के प्रति वह वफादार हो, तभी सच्चे माने में वह साधु कहला सकता है
और तभी वह वन्दनीय कहा जा सकता है। एक दृष्टान्त के द्वारा मैं आपको अपनी बात समझा दूं
एक नगर में एक बहुरुपिया आया हुआ था। एक दिन उसने साधु का वेश बनाया । वेश से वह ऐसा लगता था, मानो हूबहू साधु हो। वह साधुवेश में एक करोड़पति सेठ के यहाँ पहुँचा । सेठ ने नमस्कार किया, कुशलक्षेम पूछा और आदरपूर्वक बैठने की प्रार्थना की । अतः साधुवेशी बहुरुपिया एक पट्टे पर बैठा। फिर उसने संसार को असारता और देह की नश्वरता का प्रभावशाली उपदेश दिया। उपदेश के उपसंहार में उसने कहा-“सेठ ! आप वृद्ध हो चुके हैं। जिदगी का कोई भरोसा नहीं है । आपके पीछे कोई सन्तान भी नहीं है । इसलिए जितना भी हो सके, अपनी प्राप्त सम्पत्ति का सदुपयोग करिये।"
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