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________________ २६४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ तपस्या से साधुजीवन कुन्दन की तरह निखर जाता है, बशर्ते कि वह तप आडम्बर - रहित हो, प्रसिद्धि और प्रदर्शन से दूर हो, स्वार्थ और कामना से, फलाकांक्षा और उभयलौकिक वाञ्छा से दूर हो । अन्यथा वह तप ताप बन जाता है । ताप हृदयदाहक और उत्तेजक होता है, तप कर्माग्निदाहक और आत्मशुद्धिकारक होता है । उग्रतपा, घोरतपा, गुप्ततपा, तप्ततपा आदि विशेषण तपस्वियों-तपोनिष्ठ मुनियों के लिये प्रयुक्त होते हैं । ऐसे निःस्वार्थ, निराकांक्ष एवं निःस्पृह तप से साधुजीवन वन्दनीय और धन्य बन जाता है । साधुजीवन को धन्य बनाने वाला आठवाँ गुण है— त्याग ! त्याग का सच्चा अर्थं मैंने पूर्व-प्रवचन में बताया था, उसी सन्दर्भ में त्याग भी साधुजीवन को चमकाने वाला है । आन्तरिक त्याग ही जीवन को दिव्य भव्य बनाता है । जिस साधु में त्याग का दिखावा होता है, सच्चा त्याग नहीं होता, वह साधु त्याग के प्रदर्शन से, या केवल त्याग के आडम्बर से या संग्रह से वन्दनीय नहीं बनता । जिस साधु में संग्रहवृत्ति होती है, वह धीरे-धीरे पदार्थों की ममता मूर्च्छा और आसक्ति में फँसकर अपनी साधुता का दिवाला निकाल देता है । इसके बाद नौवाँ गुण, जो साधु को वन्द्य बनाता है, वह है-आकिंचन्य । अपना, अपने नाम का, अपने स्वामित्व का, अपने ममत्व से पोषित कोई भी पदार्थ न रखना अकिंचनता है । ऐसा साधु जिसको अकिंचनता का अभ्यास इतना गहरा हो गया है कि वह सदा अपनी स्मृति से अपने अकिंचन स्वरूप को ओझल नहीं होने देता, वही वास्तव में आत्मधनी है । बाह्य धन या साधन उसके सामने कुछ नहीं हैं । वह एक भी वस्तु रखे बिना अपनी मस्ती में रहता है । वह बादशाहों का बादशाह है । यूनान का बादशाह सिकन्दर संत डायोजीनिस के पास पहुँचा । वह प्रातः काल धूप ले रहा था । सिकन्दर ने अपना परिचय देते हुए कहा - " मैं सिकन्दर हूँ ।" डायोजीनिस बोला - " मैं डायोजीनिस हूँ ।" सिकन्दर - " तुम मुझ से डरते नहीं ?" डायोजनिस - "तुम धर्मात्मा हो या पापात्मा ?” सिकन्दर - " मैं धर्मात्मा हूँ ।" डायोजनिस - " धर्मात्मा से मुझे क्या डर ? अगर पापी हो तो पापी से भी मुझे क्या भय है ?" सिकन्दर - " मैं तुमसे बहुत खुश हूँ, जो चाहो सो माँग लो ।" डायोजनिस - "मुझे तुमसे कुछ भी नहीं मांगना है । देना चाहते हो तो धूप छोड़ दो। मुझे प्रकृति के साथ घुलने-मिलने दो ।" सिकन्दर उसकी अकिंचनता देखकर दंग रह गया । इस प्रकार की अकिंचनता साधुजीवन का भूषण है, दूषण नहीं । इसके पश्चात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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