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वन्दनीय हैं वे, जो साधु २६३ रखवा दीजिये, आप चाहे इसे ग्रहण न करें, न छुएँ ।" दयालु साधु ने कहा-“यदि ऐसा है तो जाओ, उस कोने में गडढा खोदकर इसे गाड़ दो।"
भक्त ने वैसा ही किया और निश्चिन्त होकर तीर्थयात्रा के लिये चल पड़ा। वहाँ से लौटकर वह एक वर्ष बाद आया। महात्मा से उसने अपनी थेली मांगी तो उन्होंने कहा—जहाँ तुमने रखी थी, वहीं खोदकर निकाल लो। भक्त ने ज्यों की त्यों थैली निकाल ली । प्रसन्न होकर साधु की अत्यधिक प्रशंसा करता हुआ वह घर पहुंचा। साधु अपनी प्रशंसा सुनकर जरा भी न फूला । घर आकर उस व्यक्ति ने थैली अपनी पत्नी को सौंपी और कहा-“मैं नहाकर आता हूँ, तब तक तुम इसे रखो।" पत्नी ने हर्ष के मारे आज लडडू बनाने का विचार किया। उसने उस थैली में से एक स्वर्णमुद्रा निकाली और बाजार से खाद्यपदार्थ लाकर लड्डू तैयार किये । भक्त नहाकर घर आया, स्वर्णमुद्राएँ गिनने लगा तो एक स्वर्णमुद्रा कम निकाली। मन ही मन सोचा"हो न हो, उसी संत ने मुहर निकाली है। बदमाश कहीं का, साधु बना है ! मैं अभी अभी जाकर उस संत की खबर लेता हूँ।" वह सीधा संत के पास पहुँचा और लगा बकने-“अरे ओ पाखण्डी साधुड़ा ! उस थैली में से एक सोना मोहर तुमने चुराई है, उसे वापस कर दे । नहीं तो अभी तेरी इज्जत मिट्टी में मिला दूंगा।"
आवेश में मनुष्य भान भूल जाता है, न वाणी पर संयम रहता है, न मन और तन पर । वह भक्त संयम खोकर साधु को यद्वा-तद्वा कहते हुए घर आया । साधु तो बिलकुल शान्त रहे। उन्होंने मन-वचन-काया पर संयम रखा। घर पहुँचने पर स्त्री ने पूछा तो पहले तो कुछ भी न कहा, फिर स्त्री का आग्रह देखकर सारी बात बताई तो उसने कहा-“साधु ने एक भी मुहर नहीं चुराई, मैंने ही उसमें से एक मुहर निकाली थी। उससे लडडू बनाने का सामान लाई थी।" सुनते ही भक्त अवाक रह गया । वह लज्जित होकर पश्चात्तापपूर्वक भोजन किये बिना सीधा संयमी साधु के पास पहुँचा । उनके चरणों में गिरकर बोला-"भगवन् ! मुझे क्षमा कर दें। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। आप पर मैंने झूठा इलजाम लगाकर आपको हैरान किया। आपकी निन्दा से आपको बहुत ही दुःख हुआ होगा।' साधु ने जमीन पर से एक चिपटी धूल लेकर कहा-“यह निन्दा की चिपटी और यह प्रशंसा की चिपटी है। साधु के लिये निन्दा-स्तुति दोनों इस धूल की तरह हैं । मेरी ओर से तुम्हें क्षमा देता हूँ।"
यह है-निन्दा-स्तुति दोनों अवसरों पर संयम का उदाहरण । इसी प्रकार एक विचारक ने कहा
साधु कहिये वाको, जो स्वाद जीते जग माही। अर्थात्-जो संसार के सभी प्रकार के स्वादों-इन्द्रियों और मन के स्वादों को जीत लेता है, वही सच्चा संयमी साधु है । वही वन्दनीयता की कोटि में आता है।
इसके बाद सातवाँ साधुगुण हैं-तप। तप भी इच्छाओं का निरोधरूप है ।
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