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________________ २६२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ इन्द्रियचेष्टाओं से भी सत्य होना चाहिए। साथ ही मन-वचन-काया की एकरूपता, मन के सत्य विचार के अनुरूप वचन और काया से भी सत्याचरण होना चाहिए। जिस साधु में सत्यता होती है, उस में निर्भयता स्वत: आ जाती है। यद्यपि कठोर सत्य का होना, विभाजन करने, नष्ट करने या बर्बाद करने वाले सत्य का अभिव्यक्त करना साधु जीवन के लिए खतरनाक होता है। संत सत्य को अभिव्यक्त करते हैं, परन्तु द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को देखकर, जिस सत्य के कहने से किसी के हृदय को चोट पहुँचती है, संत उस सत्य को प्रकट नहीं करता। समय आने पर वह सत्य को समाज या व्यक्ति के लिए परम हितकारी समझकर साफ-साफ प्रकट कर देता है, वह फिर किसी की भी यहाँ तक कि राजा और सम्राट तक की भी लल्लोचप्पो नहीं करता, न ठकुरसुहाती करता है । धनिकों की चापलूसी करके उनके पापों पर पर्दा डालने की कोशिश सच्चा संत-वन्दनीय साधु नहीं करता। जब जोधपुर के राजा वेश्यागामी हो गए तो ऋषि दयानन्द को पता लगते ही एक दिन उन्होंने राजा को साफ-साफ कह सुनाया-"राजन् ! आपका उस वेश्या के साथ संग करना बहुत बुरा है।'' यद्यपि राजा को इस हितकर वचन से बहुत आघात लगा, वेश्या को अपना स्वार्थ भंग होते देख बहुत बुरा लगा, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप उन्हें सहर्ष मृत्यु का आलिंगन करना पड़ा। इसके बाद छठा गुण वन्दनीयता के लिए आवश्यक है-संयम । संयम तो साधु जीवन का प्राण है । साधु प्राण दे सकता है, संयम को नहीं खो सकता। उस की पाँचों इन्द्रियाँ संयम से ओतप्रोत रहती हैं; मन, बुद्धि एवं हृदय-ये तीनों संयम से सराबोर होते हैं । इसी प्रकार पृथ्वीकाय आदि १७ प्रकार के जीवनिकायों के प्रति संयम रखना भी बहुत आवश्यक है । संयम साधुजीवन को परिपुष्ट करने वाला है। इसलिए साधु आपनी आवश्यकताओं, इच्छाओं और कामनाओं पर भी संयम करता है, वह उन पर भी नियंत्रण करता है और अपने जीवन को स्वाभाविक रूप से संयम से अभ्यस्त कर लेता है। वह कदापि संयम की मर्यादारेखा का उल्लंघन नहीं करता। कोई निन्दा करे या प्रशंसा, गाली दे या प्रतिष्ठा करे, लाभ हो या अलाभ, सुख हो या या दुःख, सुख-सुविधा मिले या न मिले, जीवन रहे चाहे जाए, अपने मन को संयम में सुरक्षित रखता है । एक उदाहरण लीजिए ___ एक पहाड़ी पर एक संत रहता था, वह अपने स्व-पर-कल्याण में संलग्न रहता था । एक दिन एक भक्त आया और कहने लगा-"महात्मन् ! मुझे तीर्थयात्रा के लिए जाना है, मेरी यह स्वर्णमुद्राओं की थैली आप अपने पास रखिए।" साधु ने कहा"भाई ! हमें इस माया से क्या मतलब ! हमने तो स्वयं सम्पत्ति छोड़ी है, फिर उसमें क्यों फंसाते हो ?" भक्त ने कहा-“महाराज ! आपके सिवाय मुझे और कोई सुरक्षित एवं विश्वस्त स्थान नहीं दिखता। कृपा करके आप अपने किसी विश्वस्त स्थान में इसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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