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बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं-२ १५३ __ पगला-"अच्छा, धागा न सही, आपकी अपनी कमाई का धन तो आपके साथ जायेगा न ।"
सेठ-"तू पागल है । समझ नहीं रहा है । मरने के बाद कोई भी चीज परलोक को साथ में नहीं जाती । तू ही तो भजन गाया करता है न
डेहली तक तिरिया का नाता, पोली तक माता। - मरघट तक ही चले संगाथी, जीव अकेला जाता ॥
ला जाता। देखो रे लोको ! भूलभुलैया का तमाशा !
"सौ बात की एक बात, परलोक में जीव अकेला ही जाता है । सारे सजीवनिर्जीव पदार्थ जिन्हें अपने माने थे, वे सब यहीं रह जाते हैं।"
यह सुनकर पगला तो पहले तो हंसता रहा । फिर गंभीर होकर बोला“सेठजी ! एक बात कहूँ, बुरा मत मानना। आपने जिंदगीभर तक ऐसे पदार्थों का संग्रह किया और ऐसे लोगों के साथ मोह-ममता रखी, जो साथ में कदापि चल नहीं सकते । क्या इन्हें छोड़कर जाने का दुःख ही आपके पल्ले पड़ेगा। तब तो सेठजी ! मैं आपसे अधिक जीत में रहा । मैं वैसे पागल नहीं हूँ। लोगों ने मुझे पागल कहा, तो मैंने पागलपन ओढ़ लिया । मैं बचपन से साधु-साध्वियों की वाणी सुनता आ रहा हूँ। साधु बनने की योग्यता तो मुझ में थी नहीं, किन्तु मैं अपनी मस्ती में जीता रहा हूँ, जी रहा हूँ, कमाता हूँ तो अपने शरीर के लिए खर्च करने के अलावा मैं दान देता हूँ, परलोक की बैंक में जमा करने लिए। बताइये, आप अधिक सुखी रहे या मैं ?"
सेठ आश्चर्य से एक दार्शनिक की-सी वाणी सुन उसकी ओर देखने लगे। फिर धीरे से दु:खित स्वर में बोले-"भाई ! तुम जीत में रहे, मैं हार में रहा । तुमने जिंदगी की बाजी जीत ली, इसीलिए तुम मुझ से अधिक सुखी रहे । सचमुच, तुम्हारा जीवनदर्शन सत्य है । विषय-भोगों में ग्रस्त लोगों को तुम्हारा यह सत्य कटु लगता है । पर तुमने तो बचपन से ही इस सत्य का अभ्यास जीवन में कर लिया, इसे मधुर बनाकर जीवन में उतारा है । तुम्हारा वास्तविक रूप तो आज ही मैंने देखा है।"
पगला-“सेठजी ! आप मृत्युशय्या पर हैं, इसलिए मैं आपको चिढ़ाने की दृष्टि से यह सब नहीं कह रहा हूँ। आप मेरे हितैषी हैं। आपने कई बार मुझे हितशिक्षा भी दी थी, लेकिन वह मेरे गले नहीं उतरी; पर आज मैं उसका रहस्य खोल देता हूँ, आपके सामने । मैंने कहा था कि मैं क्यों किसी से सेवा लूं । यह अभिमान की बात नहीं किन्तु बचपन से साधु-संगति के कारण मैंने एक बात गाँठ बाँध ली थी, कि साताअसाता जो भी पूर्वकर्मोदयवश आयेगी, वह तो भोगनी पड़ेगी । मैं हंसते-हंसते कर्मों का कर्ज चुकाते हुए भोगूंगा । इसीलिए मैं कड़ी मेहनत करता हूँ; अभावों में भी आनन्द मानता हूँ। दुःख मेरी दृष्टि में सुख का बीज है। मैं समाधिमरण की भावना करता हूँ, मृत्यु के भय को जीतने का अभ्यास करता हूँ तो गफलत में क्यों मरूंगा । जगत की सारी चीजें नाशवान हैं, मेरी नहीं हैं, यही मानकर मैं इनका संग्रह नहीं करता और न इनके चले (खर्च हो) जाने का दुःख करता हूँ।"
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