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________________ १५२ आनन्द प्रवचन : भाग ११ पगला - " शादी होने से क्या होगा, सेठजी !" सेठ - " तुझे हाथ से रोटियाँ नहीं बनानी पड़ेंगी । गर्म भोजन मिलेगा ।" पगला - "गर्म भोजन तो अब भी करता हूँ । लोग मुझे बनी-बनाई रोटी दे देते हैं । ज्यादा गर्म खाने से तो हाथ-मुंह जल जायेगा न ! हाथ-मुंह जलाने के लिए कौन इतना प्रपंच करे ।" सेठ – “अरे पगले ! इतना भी नहीं समझा । शादी हो जायेगी तो बच्चे होंगे, वे बुढ़ापे में तेरी सेवा करेंगे ।" पगला – “सेठजी ! कैसी सलाह दे रहे हैं आप ! मैं क्यों किसी से सेवा लूं ? और क्यों बूढ़ा होऊँ ? देख लो, वह निर्मला की मां, पांच-पांच बेटे तथा कई पोते होते. हुए भी अकेली रहती है, हाथ से रोटियाँ बनाकर खाती है ।" सेठ - "सब के बेटे ऐसे थोड़े ही होते हैं ?" पगला – “किसके पुत्र कैसे होंगे, क्या पता ? मुझे तो यह सौदा बहुत घाटे का मालूम होता है, इसलिए मैं तो ऐसा झंझट मोल नहीं लूंगा ।" सेठ झुंझलाकर कहने लगे – “आखिर तो तू पगला ही ठहरा ! क्या बतायें तुझे !” पगला यह सुनकर हँसता हुआ चला गया । एक बार सेठजी बीमार पड़ गये । बुढ़ापा तो था ही। अब उन्हें स्वस्थ होने की आशा नहीं थी । रुग्णशय्या पर पड़े-पड़े वे मौत से जूझ रहे थे । घर के लोग अपनेअपने काम में लगे रहते । सेठ चुपचाप लेटे-लेटे अनेक विचारों की उधेड़-बुन में लगे रहते । वे अकेले ऊब जाते । कभी-कभी पगला उनके पास मन बहलाने को पहुँच जाता तो सेठ उससे दो-चार बात कर लेते थे । एक दिन पगले ने सेठजी से पूछा - " आज बहुत उदास लगते हैं, सेठजी ! क्या हाल है ?" सेठ – “भाई ! अब तो यमराज के घर का बुलावा आ गया है । अब यहाँ से डेरा कूच करना पड़ेगा ।" पगला - " तो इसमें उदास होने की क्या बात है, सेठजी ! अगर आपका जाने का मन न हो तो खबर भेज दो, कि अभी मैं नहीं आ सकूंगा ।" सेठ - " अरे भाई ! न तो इसकी खबर भेजी जा सकती है और न ही यमराज का बुलावा टाला जा सकता है । वहाँ तो जाना ही पड़ेगा ।" पगला - "ऐसी बात है, फिर चिन्ता क्या है ? भैया से कह दो - वे सब तैयारी करवा देंगे । डेरा, तम्बू, सवारी, सेवक-सेविकायें और यात्रा का सब प्रबन्ध कर देंगे । कहने पर वे भी साथ चले चलेंगे ।” सेठजी - " अरे ! इतना भी नहीं समझता । यह सब प्रबन्ध नहीं हो सकता और न कोई साथ में जा सकता है ।" पगला – “तो फिर चेकबुक, गहने-कपड़े अपने साथ ले लीजिये । वहाँ आगे काम आयेंगे ।" सेठ – “मेरे भाई ! वहाँ तो एक धागा भी साथ नहीं जा सकता ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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