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________________ बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं - २ १५१ करने अवश्य पहुँच जाता । उनकी प्र ेरणा बड़े ध्यान से सुनता और आचरण में लाने का प्रयत्न करता था । वैसे वह किसी भी दुःखी, अपंग, अंधे और वृद्ध आदि की सेवा करने को तत्पर रहता था। एक दिन नगर के एक प्रतिष्ठित सेठ की उस पर दृष्टि पड़ी । अपना जातिभाई एवं सहधर्मी समझकर उन्होंने उसे अपने पास बुलाकर पूछा"भाई ! तुम रोटी कहाँ खाते हो ? कहाँ रहते हो ? कहाँ सोते हो ?" वह बोला - " जहाँ भी मिलती है, वहाँ खा लेता हूँ, अपने मकान में रात को सोता हूँ, वहीं रहता हूँ ।" सेठजी ने उसे हितशिक्षा देते हुए कहा - "देखो ! तुम मेरे यहाँ आया करो । घर के कुछ काम कर दिया करो । भोजन, वस्त्र आदि जिस वस्तु की जरूरत हो, मेरे से ले लिया करो । दूसरे दिन से वह सेठजी के घर में काम करने लगा। पानी भरना, अनाज साफ करना, बर्तन मलना, सफाई करना, गायें दुहना आदि सब कार्य करता और सख्त मेहनत से काम करता। उसके बदले वह पैसा लेता । दिनभर में कितने ही पैसे कमा लेता था, पर वह संग्रह करके नहीं रखता था। रोज की कमाई रोज ही खर्च कर देता था । अच्छा खाता-पीता पहनता, फिर जो भी पैसे बचते उन्हें किसी जरूरतमंद या अत्यन्त गरीब को दे देता । उसका ऐसा ही स्वभाव बन गया था । लोग उसे पैसे बचत करके रखने का कहते तो वह 'ऊंह' करके टाल देता था । लोग उसे पगला समझकर छोड़ देते थे । एक दिन सेठजी ने फिर उसे बुलाकर कुशल-मंगल पूछा और कहाँ – “कहो भाई ! प्रतिदिन कितना कमा लेते हो ?" वह बोला - " सेठजी ! मैं तो कोई हिसाव नहीं रखता । जो भी मिला, ले लेता हूँ, उसमें से कुछ अपने लिए खर्च कर देता हूँ और शेष जरूरतमंदों को दे देता हूँ ।" सेठ – “मेरी समझ से रोजाना दो चार रुपये तो कमा ही लेता होगा ?" पगला ( हंसकर ) - "हाँ उससे ज्यादा ही हो जाता होगा, मेरे पास तो कोई हिसाब नहीं रहता, सेठजी !” सेठ ने उसका हाथ पकड़कर समझाया - " देख ! इतना पागलपन मत रख । कुछ रुपये बचत भी किया कर । सारे ही एकदम खर्च क्यों कर डालता है ?" पगला - " बचत करने से क्या होगा ?" सेठ – “ उन रुपयों से छोटी-सी दूकान दनी भी ज्यादा होगी और काफी रुपये तेरे करेंगे ।" खोल लेना । व्यापार बढ़ेगा तो आमपास हो जायेंगे । लोग तेरी इज्जत पगला - "यह तो अब भी करते हैं। सभी सेठ – “ अरे । इज्जत करेंगे तो कोई तुझे शादी भी हो जायेगी ।" Jain Education International मुझ से प्रसन्नता से बोलते हैं ।" अपनी लड़की भी दे देगा | तेरी 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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