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आनन्द प्रवचन : भाग ११
भरत चक्रवर्ती के पास अतुल सम्पत्ति थी । हीरे, पन्ने, माणक, मोती, सोना, आदि सब थे, अपार सुख-साधन थे। फिर भी वे निर्लेप निरासक्त रहते थे । यही नहीं, भगवान ऋषभदेव के दीक्षा लेने के बाद तथा बाद में अपने ६८ छोटे भाइयों के मुनिदीक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने समझ लिया था कि पिताजी और मेरे भाई जिस धर्ममार्ग पर चल रहे हैं, वही सारभूत है, मगर कार्यव्यस्त होने के कारण वे इस बात को प्रायः भूल जाते थे । अपनी आत्मजागृति के लिए उन्होंने एक सेवक नियुक्त कर दिया था, जो हर समय भरत को स्मरण कराता रहता था । उस सेवक का सिर्फ एक ही कार्य रहता था । भरत चक्रवर्ती चाहे सिंहासन पर बैठे हों, चाहे अन्तःपुर में हों, चाहे स्नान, भोजन आदि कार्य पर रहे हों, थोड़ी-थोड़ी देर बाद उसे इस आशय का जागृतिसूचक मंत्र सुनाना पड़ता था
चेत चेत रे भरतकुमार, विश्व में है चारित्र सार
इस मंत्र को सुनकर भरत चक्रवर्ती को हर समय यह भान रहता था कि मुझे भी एक दिन जागृत होकर उस चारित्र ( मुनिधर्म के आचरण) को अपनाना है, जो जगत् का सार (उत्तम पदार्थ ) है ।
प्रतिक्षण सम्बोध के लिए भरत चक्रवर्ती का यह कार्य कितना सूझ-बूझभरा है । क्या आप ऐसे आदमी को पसंद करेंगे, जो हरदम आपको जागृत व सावधान करता रहे या समय-समय पर आपको प्रतिबोध देता रहे ? आप ही क्या अधिकांश सम्पन्न व्यक्ति ऐसे कार्य को कतई पसंद नहीं करेंगे ।
मनुष्य आज जिस धन-सम्पत्ति, वैभव एवं भौतिक पदार्थों के पीछे हाथ धोकर पड़ा है, जिसके लिए वह दूसरों के साथ झगड़ा करता है, भाइयों के साथ मुकदमे - बाजी करता है, कैसे-कैसे दुःख सहता है ? कितनी तिकड़मबाजी करता है ? कितने - कितने अनैतिक कार्य करता है ? उसकी सुरक्षा के लिए कितना प्रबन्ध करता है ? कितना जागता है ? कितनी उखाड़ पछाड़ करता है ? क्या यह सब उधेड़बुन करने के बाद भी, यहाँ से परलोक जाते समय वह सब साथ में ले जाता है ? कदापि नहीं, बल्कि परलोक जाते समय वह अश्रुपूर्ण नेत्रों से निराश बनकर देखता रह जाता है । फिर यह सब कर्मबन्धन के काम क्यों करता है ?
एक अनाथ लड़का था । उसके माता-पिता बचपन में ही चल बसे थे । धन नष्ट हो चुका था । रहने के लिए छोटा सा मकान था, वह भी खण्डहर सा । पढ़ालिखा कुछ था नहीं । कुछ पागल था, कुछ पागलपन उसने जान-बूझकर ओढ़ लिया था । लोग उसे 'पगला' कहकर पुकारते थे । परन्तु उसमें एक आदत बहुत अच्छी थी । गाँव में कोई भी साधु-साध्वी पधारते तो वह उनके दर्शन करने, धर्मोपदेश सुनने एवं सेवा
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१, कई आचार्य लिखते हैं - वह वाक्य था - 'जितो भवान् वर्द्धते, अस्मिन् माहन माहन ।
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