________________
बोधिलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं - २ १४६
इस प्रकार अधकचरे पण्डितों के कहने का ढंग ऐसा रहता है, मानो वे सर्वज्ञ ही हों । व्यक्ति की ऐसी अहंकारी मनोवृत्ति भी सद्बोध के दरवाजे बंद कर देती है । किन्तु एक बात आज आप अनुभव करते होंगे कि मनुष्य जिस प्रकार अक्ल में अपने को अधूरा नहीं मानता है, इसी प्रकार धन में कभी अपने आपको पूरा नहीं मानता । चाहे जितना वैभव बढ़ जाये, चाहे जितनी साधनों की विपुलता हो जाये तो भी वस्तु की अल्पता का रोना नहीं मिटता । कभी-कभी तो वह यों कहने लगता है— इतने साधन और जुट जायें तो मैं धर्मसाधना में समय लगाऊँगा । पर विचार करिये कि वर्तमान युग में प्रत्येक नगर और गाँव में, प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी-अपनी हैसियत अनुसार साधन बढ़े ही हैं, घटे नहीं हैं । मगर क्या साधन बढ़ने के साथ-साथ धर्म की रुचि या धर्मसाधना बढ़ी है ? आप कहेंगे, ऐसा तो नहीं हुआ है ।
सोचिये, आपके पूर्वज धर्मसाधना अधिक करते थे या आप अधिक करते हैं ? अतः यह समझना भूल है कि साधनों की वृद्धि से धर्मरुचि में वृद्धि होती है । इसके विपरीत वैभववृद्धि या सुख-साधनवृद्धि मनुष्य में अधिकाधिक धनलिप्सा जगाकर उसे धर्मसाधना से दूर हटा देती है । इसी कारण आज का धनलिप्सु मानव साधु-साध्वियों के पास भी आता है तो प्रायः कोई न कोई भौतिक साधन की प्राप्ति की सम्भावना से आता है । कोई मंत्र, तंत्र या यंत्र मिल जाये तो बस बेड़ा पार हो जाये, मैं मालामाल हो जाऊं तो फिर, दान, पुण्य या धर्म करूंगा । ऐसा कहते देखे गये हैं, बहुत लोग । ऐसे लोग धन को दुर्लभ समझते हैं, किन्तु ज्ञानी और बोधिप्राप्त व्यक्ति की दृष्टि में धन दुर्लभ नहीं है, दुर्लभ है— बोधि यानी सम्यक्त्व | जिसने बोधि पाली, समझ लो, उसे अनन्त जन्मों का सुख का खजाना मिल गया ।
मैं आपसे पूछता हूँ कि आजकल लोग जितना भौतिक पदार्थों को पाने के लिये प्रयत्न करते हैं, क्या उसका शतांश जितना भी प्रयत्न बोधि प्राप्त करने के लिए करते हैं ? इसका कारण है कि लोग भौतिक पदार्थों, धन, मकान, कार, कोठी आदि जड़ साधनों का मूल्य बोधि की अपेक्षा अधिक समझते हैं। बोधि देने वाला कोई निःस्पृह व्यक्ति आयेगा भी तो उसकी बात को नहीं सुनेंगे, या सुनी-अनसुनी कर देंगे । सम्बुद्ध व्यक्ति की दृष्टि में सांसारिक पदार्थों की कीमत एक कोड़ी की भी नहीं है, जबकि स्थूल दृष्टि वाले अज्ञानी लोग उसी को जीवन - सर्वस्व मानते हैं । जिस सम्बोध से जीब कृतकृत्य हो सकता है, उसकी ओर से वह आँखें मूंद लेता है, पीठ फिरा लेता है औव कौड़ी के मूल्य का समझकर ठोकरों से उड़ा देता है लिए पुकार -पुकार कर कहते हैं
।
इसीलिए ज्ञानीजन उसे जगाने के
जागरह णरा ! णिच्च, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धि । जो सुवति ण सो धण्णो, जो जागति सो सया धण्णो ॥
मनुष्यो ! सदा जागते रहो । जागृत रहने वाले की बुद्धि बढ़ती है । जो सो जाता है, वह धन्य-ज्ञानादि धन के योग्य नहीं है, जो जागता है, वह सदा धन्य है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org