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आनन्द प्रवचन : भाग ११
इसीलिए 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व का माहात्म्य बताते हुए कहते हैं
विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥३२॥ न सम्यक्त्वसमं किंचित्काल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनुभृताम् ॥३४॥ सम्यग्दर्शनशु द्धा नारक-तिर्यङ नपुसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च ब्रजन्ति नाप्यवृत्तिका ॥३५॥
ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः। __महाकुला महार्थ मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूता ॥३६॥
अर्थात्-जैसे बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलसम्पत्ति नहीं होती, वैसे ही सम्यक्त्व बीज के अभाव में ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलनिष्पत्ति नहीं होती।
जीवों के लिए सम्यक्त्व के समान तीन काल और तीन लोक में कोई भी श्रेयस्कर नहीं है और मिथ्यात्व के समान कोई अश्रेय नहीं है। सम्यग्दर्शन से शुद्ध मानव (यदि पहले आयुबन्ध न हुआ हो तो) नारक, तिर्यञ्च, नपुसक, स्त्री, दुष्कुली, विकलांग, अल्पायु, दरिद्र या दुश्चरित्र नहीं होते; बल्कि वे ओजस्वी, तेजस्वी, विद्यावान्, वीर्यवान, यशस्वी, वृद्धियुक्त, विजयी, वैभवशाली, महाकुलीन, धनाढ्य एवं मानवों में श्रेष्ठ होते हैं। सबोध-लाभ दुर्लभ : क्यों और कैसे ?
___ बोधिलाभ का पांचवां अर्थ सदबोधलाभ है। सदबोधलाभ भी जिसे अपने जीवन में प्राप्त हो गया समझ लो, उसके सभी संकट कट गये। वह अपनी जीवन-नया को आसानी से खेकर संसार समुद्र पार कर सकेगा । सदबोध का तात्पर्य है—प्रबोध या प्रतिबोध, आत्मजागृति, जिसे पाकर व्यक्ति हेय, ज्ञय और उपादेय का विवेक करने की तत्परता दिखाता है । इस प्रकार सद्बोध आत्मोत्थान के मार्ग में गतिप्रगति करने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है।
ऐसा सदबोधलाभ दुर्लभ क्यों है ? क्या आपने कभी सोचा है, इस पर ? वह इसलिए दुर्लभ है कि लोग असली बोध के बदले नकली बोध को पाकर अहंकार में फटे पड़ते हैं । आज का बी० ए०, एम०ए० पढ़ने वाला कॉलेजियन विद्यार्थी अपने-आप को बहुत ही अधिक बुद्धिमान, समझदार और ज्ञानी समझने लगता है । बातचीत के प्रसंग में वह कहता है-"क्या मुझे बुद्ध समझ रखा है ? मैं सब जानता हूँ। मुझे सब मालूम है । मैं तो पहले ही यह सब जानता था । क्या मैं बुद्धिहीन हूँ। मेरी जानकारी के बाहर कोई बात नहीं है।"
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