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________________ ३१४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ . जब पूछा गया कि हम किस से बोध प्राप्त करें ? उसके लिए उपनिषद् में एक वाक्य आता है-"प्राप्य वरान् निबोधत ।" यानी 'वरों के पास पहुँचकर बोध प्राप्त करो। यहाँ ऋषि के लिए 'वर' शब्द का प्रयोग किया गया है । जो सब ओर से, सब प्रकार से सर्वागीण श्रेष्ठ है, उसे 'वर' कहते हैं। वर-वधू में भी इसी दृष्टि से 'वर' शब्द आता है । 'वधू' की दृष्टि से जगत् में सर्वश्रेष्ठ मानव उसका पति ही है । फिर भले ही वह कोई भी हो । यहाँ भी परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के लिए सर्वश्रेष्ठ (वर) पुरुष ऋषि हैं, जिनके पास पहुँचकर बोध प्राप्त करने का निर्देश किया गया है । ऋषि ऐसी शक्ति-बोधशक्ति भर देता है, जिससे मनुष्य में दौड़ने की शक्ति आ जाती है। - 'वर' (ऋषि) के पास श्रेष्ठ पुरुष होने के नाते कुछ आभूषण होने चाहिए । वे आभूषण कौन-कौन से है ? इसका हमें विचार कर लेना है। मुख्यतया सात आभूषणों से विभूषित पुरुष ही श्रेष्ठ (ऋषि) है (१) भगवत्स्पर्शी जीवन (२) ज्ञानपूर्ण मस्तिष्क, (३) वात्सल्यपूर्ण हृदय, (४) वृत्ति की महानता, (५) अन्तःकरण की उदारता, (६) जीवन की तेजस्विता और (५) हृदय की वैभवशीलता। - ऋषिवर का सर्वप्रथम आभूषण है-भगवत्स्पर्शी जीवन । उसके अंग-अंग में वीतराग प्रभु की वाणी का, उनके गुणों का, अनन्त चतुष्टय का स्पर्श हो। उसमें किसी प्रकार का व्यवधान न हो। भगवत्स्पर्श से जीवन में सभी आध्यात्मिक शक्तियां आ जाती हैं । चाहे वे अभी पूर्ण मात्रा में न हो; पर उनका स्पर्श तो हो ही जाता है। दूसरा आभूषण है-ज्ञानपूर्ण मस्तिष्क । श्रेष्ठ पुरुष (ऋषिवर) के पास पारदर्शी, सूक्ष्म और तीक्ष्ण बुद्धि होनी चाहिए। जो वस्तुत्तत्व की भीतरी तह तक पहुँच सके । वस्तु के दो रूप होते हैं। एक होता है-बाह्य रूप जिसे स्थूल दृष्टि वाले देखते हैं, एक होता है-अन्तरंग रूप, जिसे ज्ञानपूर्ण मस्तिष्क वाले ही देख सकते हैं । जो , किसी भी विषय को छानते-छानते उसके अन्त तक पहुँच जाता है, उसकी बुद्धि तीक्ष्ण होती है, क्योंकि वह विषय की गहराई तक जा पहुँचती है। किसी भी विषय की सभी पहलुओं से छानबीन कर लेना ऋषियों का स्वभाव होता है । तीसरा आभूषण है-भावपूर्ण हृदय । बुद्धि केवल सूक्ष्म और बाल की खाल निकालने वाले तर्क से युक्त होने पर मनुष्य में भावहीनता था जाती है, कर्कशता भी। इसलिए भावपूर्ण हृदय भी साथ में होना आवश्यक है। __ चौथा आभूषण है-वृत्ति की महानता। उसका आचरण भी उच्च, महान् एवं धर्म से बोतप्रोत होना चाहिए । इसलिए श्रेष्ठ पुरुष वृत्ति का महान होना चाहिए। उसमें स्वार्थ वृत्ति नहीं, सर्वार्थ वृत्ति हो, वह केवल स्वोद्धारक नहीं, विश्वोद्धारक होना चाहिए । मैं ही सुखी रहूँ, मैं ही नीरोग रहूँ, मेरा ही कल्याण हो, ऐसी संकीर्ण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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