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ऋषि और देव को समान मानो ३१५
वृत्ति न होकर 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः; सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्' इस प्रकार सर्वव्यापीवृत्ति हो ।
पाँचवाँ आभूषण है - अन्तःकरण की उदारता । श्रेष्ठ पुरुष अन्तःकरण का उदार होता है । वह स्वयं अच्छे-अच्छे कार्य करता है, पर उसका यश दूसरों को देता है । पुरुषार्थ स्वयं करता है, श्रेय सहकार्यकरों को देता है। ऋषि अपना सर्वस्व दूसरों को लुटा देता है ।
छठा आभूषण है— जीवन की तेजस्विता ! श्रेष्ठ (ऋषि) वर जीवन में सत्त्वहीन, निष्प्राण, निर्बल, आत्महीन, दब्बू, कायर, मायूस, निराश, निरुत्साह और सुस्त नहीं होते । वे निर्भय, निष्काम, उत्साही, आत्म- गौरवशील, सत्त्ववान् एवं वीर होते हैं। समाज को बदलने के लिए जब भी तप त्याग एवं प्रतिकार की शक्ति की जरूरत हो ऋषिवर कदापि पीछे नहीं हटते । वे वीर की तरह प्राण प्रतिष्ठा और परिग्रह की आहुति देने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते ।
सातवाँ आभूषण है— हृदय की वैभवशीलता । केवल मोटी या चौड़ी छाती वाला मनुष्य श्रेष्ठ नहीं होता, अपितु जिसके हृदय में मानव मात्र ही नहीं, प्राणिमात्र समा जाये, इतना विशाल वैभवशाली हृदय हो । जो किसी मानव को अपने हृदय में स्थान देने से घबड़ाता नहीं चाहे रूढ़ समाज उसका विरोधी ही क्यों न बन जाये ।
ये सात आभूषण या सात गुण 'वर-नर' (ऋषिवर) में होते हैं जिनसे वह सारे समाज, राष्ट्र एवं विश्व को बोध दे सकता है । विशेषावश्यकभाष्य के पंचम निवाधिकार में एक कथा आती है, जो इस विषय को पुष्ट करती है कि ऋषिवर बोध बेकर कैसे सन्मार्ग में स्थिर कर देते हैं ।
भगवान् महावीर के निर्वाण को २८ वर्ष बीत चुके थे। तभी पाँचवाँ निह्नव हुआ। वह कैसे निह्न हुआ, इसकी रोचक कथा है— उल्लुक देश की उल्लुका नदी के किनारे उल्लुकनगर था । वहाँ नदी के दूसरे तट पर महागिरि आचार्य के शिष्य धनगुप्त आचार्य रहते और नदी के पूर्वतट पर उनके शिष्य आर्य गंग नामक आचार्य थे । वे एक बार शरत् काल में अपने गुरु (आचार्य) को वन्दन करने हेतु गंगा नदी पार कर रहे थे; उस समय उनका केश रहित सिर सूर्य का प्रखर ताप पड़ने से प लगा, तथा पैरों में नदी के पानी की शीतलता का स्पर्श होने लगा । मिथ्यात्व के उदय से आयं गंग ऐसा दुश्चिन्तन करने लगे- 'जैन सिद्धान्तों में तो एक समय में दो क्रियाओं के अनुभव होने का निषेध है, जबकि में इस समय प्रत्यक्ष एक समय में उष्णता और शीतता (गर्मी और ठंड ) इन दोनों का अनुभव कर रहा हूँ । अतः आगम में प्ररूपित सिद्धान्त अनुभव से विरुद्ध होने से ठीक नहीं है ।'
आर्य गंग ने अपनी बात गुरु के समक्ष रखी। गुरु ने कहा – तुम जिन दोनों क्रियाओं का अनुभव एक समय में होने की बात कहते हो, वे युगपत् ( एक समय में) नहीं
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