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मृत और दरिद्र को समान मानो ३४६
वफादारीपूर्वक काम करूंगा । भोजन करने से मेरे शरीर में शक्ति आएगी । तो मैं काम कर सकूँगा ।"
सेठ का पारा गर्म हो गया, बोला- “जाओ, हटो यहाँ से । मेरा सिर मत खपाओ ।"
दरिद्र बढ़ई बोला—“अच्छा सेठजी ! मैं तीन दिन का भूखा हूँ । मुझे कुछ भोजन तो करा दें, जिससे थोड़ी-सी शरीर में स्फूर्ति आ जाये ।"
सेठ बोला- ' ' जा- जा यहाँ से ! यहाँ क्या भोजन रख गया था ? यहाँ लंगर थोड़े ही है, जो भोजन मिलेगा ।"
बेचारा दरिद्र बढ़ई निराश होकर चलने लगा । उसे सेठ से ऐसी आशा नहीं थी कि एक मानव का इतना अपमान करेगा । उसने चलते-चलते सेठ से फिर कहा - " सेठजी ! मुझे सिर्फ एक पैसा दे दें, मैं चने खाकर पानी पी लूँगा ।" परन्तु सेठ ने साफ इन्कार कर दिया – “यहाँ कुछ न मिलेगा ।" वढ़ई दरिद्र था । दरिद्र का आत्म-सम्मान मर ही जाता है, उसको चाहे जैसे उलटे-सीधे फटकार - तिरस्कार के वचन सहने पड़ते हैं । क्या इस दरिद्रावस्था और मृतावस्था में कोई अन्तर है ?
मृच्छकटिक नाटक में दरिद्रता का चित्रण करते हुए कहा गया है—
दारिद्र्यात् ह्रियमेति ह्रीपरिगतः प्रभ्रश्यते तेजसो । निस्तेजाः परिभूयते परिभवान्निर्वेदमापद्यते ॥ निर्विण्णः शुचमेति शोकपिहितो बुद्ध या परित्यज्यते । निर्बुद्धिः क्षयमेत्यहो निधनता सर्वापदामास्पदम् ॥ १ ॥ दारिद्रयात्पुरुषस्य बान्धवजनो वाक्ये न संतिष्ठते । सुस्निग्धा विमुखीभवन्ति सुहृदः स्फारीभवन्त्यापदः ॥ सत्त्वं ह्रासमुपैति शीलशशिनः कान्तिः परिम्लायते । पापं कर्म च यत् परैरपि कृतं तत् तस्य सम्भाव्यते ॥ २ ॥
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अर्थात् - दरिद्रता से मनुष्य लज्जित हो जाता है, लज्जाहीन होने से उसका तेज नष्ट हो जाता है । निस्तेज मनुष्य का जगह-जगह अनादर होता है। जगह-जगह अनादर होने से उसे ग्लानि हो जाती है । ग्लानियुक्त मनुष्य शोक करने लगता है और शोकपीड़ित मनुष्य का बुद्धि परित्याग कर देती है । अहो, दरिद्रता समस्त आपदाओं का स्थान है । दरिद्रता के कारण दरिद्र व्यक्ति का उसके बांधवगण कहना नहीं मानते । जो उसके मित्र या स्नेहीजन हैं, वे विमुख हो जाते हैं, आफतें बढ़ जाती हैं । दरिद्र का सत्त्व क्षीण हो जाता है, शीलरूपी चन्द्रमा को कान्ति फीकी पड़ जाती है, तथा जो पापकर्म दूसरों ने किया है, उसकी शंका उसके प्रति की जाती है । सचमुच दरिद्रता एक प्रकार की मृत्यु है । इसीलिए आगे चलकर इसी नाटक में कहा है
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