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आनन्द प्रवचन : भाग ११
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दरिद्रता का शिकार मृत है
वास्तव में देखा जाये तो पूर्वोक्त सभी प्रकार की दरिद्रताओं का शिकार एक तरह से मृत ही है । महर्षि गौतम की अनुभव की आँच में तपी हुई यह उक्ति वास्तव में यथार्थ है कि 'दरिद्र और मृत को समान मानो' ।
उसे
प्रश्न होता है कि दरिद्र मनुष्य चाहे दरिद्र हो, परन्तु है तो वह जीवित ही, मृत क्यों और किस दृष्टि से कहा गया है ? आपको मैं दारिद्र्य के परिणाम संक्षेप में बता दूं, जिससे आप इस बात को भली-भाँति समझ सकेंगे । दरिद्र को मृत क्यों कहा गया है ?
दरिद्र आदमी को पेट भरने के लिए इधर-उधर भटकना पड़ता है, मगर उसे माँगने से भी कई दफा नहीं मिलता, गालियाँ और धिक्कार मिलते हैं, कई बार उसे मार भी पड़ती है । अगर कहीं कुछ माँगने जाता है तो गृहस्वामी चोर या उचक्का होने की शंका से उसे धक्का देकर निकाल देता है । एक कवि कहा है
लखि दरिद्र को दूर तें, लोग करें अपमान । जाचक-जन ज्यों देखि कै, भूसत हैं बहु स्वान ॥
महात्मा गांधी के द्वारा प्रेरित पत्र - 'प्रिजन सेवक' में वर्षों पहले एक धनिक का आत्मव्यथापूर्ण पत्र छपा था । पत्र हरिजन सेवक के सम्पादक 'श्री किशोरलाल मवाला' पर आया था । पत्र का संक्षेप में भावार्थ यह था कि एक धनिक सेठ के पास एक भूतपूर्वं सम्पन्न किन्तु वर्तमान में दरिद्र बढ़ई मिलने आया । बहुत देर तक द्वार पर खड़ा रहा, किन्तु सेठ ने कोई ध्यान नहीं दिया । आखिर वह साहस करके पास पहुँचा, अपनी व्यथाकथा सुनाई कि सेठजी ! मैं एक अच्छा मिस्त्री था, कुर्सी, टेबल आदि लकड़ी का सामान बनाता था । किन्तु दुर्भाग्य से मेरे कारखाने में आग लग गई । सब सामान जलकर खाक हो गया । मैं बिलकुल निर्धन हो गया । खाने-पीने की भी तंगी आगई । क्या करू ? किससे माँगूँ, कहाँ जाऊ यों दो दिन तो इसी उधेड़-बुन में रहा । किसी ने आपका नाम मुझे सुझाया कि सेठजी उदार हैं, वे तुम्हें कुछ काम दे देंगे । अतः मैं इसी आशा से आपके पास आया हूँ कि कुछ मिल जाय तो मैं अपना गुजारा
काम
चला लूं ।
इस पर सेठ तमककर बोला - " जाओ जाओ यहाँ से । मेरे यहाँ अभी कोई काम नहीं है, जो तुम्हें दे दूँ । मुझे निठल्लों की फौज नहीं भर्ती करनी है । और फिर तुम इतने दुर्बल हो कि कुछ काम कर सकोगे, इसमें सन्देह है ।"
बढ़ई ने बहुत अनुनय-विनय की कि ''सेठजी ! जैसा भी होगा, मैं बहुत
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