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आनन्द प्रवचन : भाग ११
बहुत आदर है। परन्तु फिलिप अन्त तक इस सफलता का श्रेय जॉन ह्विटले के त्याग को ही देती रही।
क्या इस प्रकार अनेक संकटों को झेलकर मानवीय करुणा का निःस्वार्थ निष्कामभाव से कार्य करना धर्मकार्य नहीं है ?
धर्मकार्य : स्वान्तःसु खाय-इस प्रकार के और भी धर्मकार्य हो सकते हैं, जो स्वान्तःसुखाय हों; निःस्वार्यभाव से, धर्म से ओत-प्रोत हों। कई बार ऐसे उत्पीडित मानवों की निःस्वार्थ सेवा करते हुए व्यक्ति को साम्प्रदायिक लोगों का कोपभाजन भी बनना पड़ता है। फिर भी उस व्यक्ति को हार्दिक प्रसन्नता होती है, उस सच्चे धर्मकार्य को करने में । महात्मा गांधीजी के जीवन का एक प्रसंग है-गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में थे। अफ्रीकन लोगों के स्वत्त्वाधिकार के लिए उनका आन्दोलन सफलतापूर्वक चल रहा था। ब्रिटिश सरकार के संकेत पर एक दिन मीर आलम नामक एक पठान ने गांधीजी पर हमला कर दिया, वे गम्भीररूप से घायल हो गये । सत्य, सेवा और अहिंसा से भरा मनुष्य का सद्धर्मकार्य ऐसा ही है, कि इसमें सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक उठाने पड़ते हैं। फिर भी धर्मकार्यार्थी मनस्वी उच्च आत्मा कभी अपने पथ से विचलित नहीं होते । गांधीजी अपने इस धर्मपुनीत कार्य पर डटे रहे । उन्हें लोगों ने स्वदेश लौट जाने का आग्रह किया, पर वे न लौटे। घायल गांधीजी पादरी जोसेफ डोक के मेहमान बने और कुछ ही दिनों में यह सम्बन्ध और घनिष्ट हो गया।
__ पादरी जोसेफ डोक यद्यपि बेपटिस्ट पंथ के अनुयायी और धर्मगुरु थे, तथापि गांधीजी के सम्पर्क से वे भारतीय धर्म और संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित हुए । धीरेधीरे वे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का भी समर्थन करने लगे। इसे देखकर पादरी डोक के एक अंग्रेज मित्र ने उनसे आग्रह किया कि वे भारतीयों के प्रति इतना स्नेह और आदरभाव प्रर्दाशत न करें, अन्यथा, उन्हें जातीयकोपभाजन बनना पड़ सकता है। इस पर डोक ने उत्तर दिया-"मित्र ! क्या अपना धर्म पीड़ितों और दुखियों की सेवा करने का समर्थन नहीं करता ? क्या गिरे हुओं को ऊपर उठाने में मदद करना धर्मसम्मत कार्य नहीं है ? ईसामसीह भी तो ऐसा ही करते हुए क्रूस पर लटके थे, फिर मुझे घबराने की क्या आवश्यकता है ?"
__ मित्र की आशंका सच निकली, कुछ ही दिन में गोरे उनके विरोधी बन गये और तरह-तरह से सताने लगे। ब्रिटिश समाचारपत्र उनकी निन्दा करने लगे. लेकिन इससे पादरी डोक की सिद्धान्तनिष्ठा में कोई अन्तर नहीं पड़ा। वे भारतीयों का समर्थन पूर्ववत् करते रहे । गांधीजी जहाँ पादरी डोक के इस त्याग से प्रभावित थे, वहाँ उन्हें गोरों द्वारा उत्पीड़ित होते देखकर चिन्तित भी थे । एक दिन गांधीजी ने संवेदना के स्वर में कहा-"आपको इन दिनों अपने जातिभाइयों से भारतीयों के कारण कष्ट उठाने पड़ रहे हैं, उसके लिए मैं भारतीयों की ओर से आपका आभार
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