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________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१ ६३ मानता हूँ। परन्तु आप पर जो संकट आ गया है, वह हमसे देखा नहीं जाता। आप हमारा समर्थन बंद कर दें । परमात्मा हमारे साथ है। यह लड़ाई हम लोग निपट लेंगे।" . इस पर पादरी डोक के कहा- "मि० गांधी ! आपने ही तो कहा थाधर्म एक और सनातन है और वह है पीड़ित मानवों की सेवा । प्रसिद्ध साहित्यकार जार्ज बर्नार्ड शॉ ( G. B. Shaw ) ने भी यही बात कही है— 'There is only one religion, though there are a hundred versions of it. अर्थात्-धर्म सिर्फ एक ही है यद्यपि उसके अनुवाद सैकड़ों हैं ।' फिर यदि मैं साम्प्रदायिक कुरूढ़ियों की अवहेलना करके सच्चे धर्म का पालन करूं तो इसमें किसी को दुःखित होने की क्या बात है ? यह तो मैं स्वान्तःसुखाय करता हूँ। पीड़ित मानवों की सेवा करते हुए मुझे जो प्रसन्नता होती है वह प्रसाद मुझे मिल ही रहा है। इसलिए ऐसे उच्च धर्मकार्य करने में आने वाली बाह्य अड़चनों, दुःखों और उत्पीड़नों की मुझे किंचित् भी परवाह नहीं।" पादरी डोक अन्त तक इस धर्मकार्य को करते रहे। वास्तव में कष्ट सहकर निःस्वार्थ भाव से वे यह धर्मपालन करते, यही आदर्श धर्मकार्य है। निःस्वार्थ दया या अनुकम्पा भी धर्मकार्य-दया या अनुकम्पा, जब निःस्वार्थ भाव से, बदले की आशा के बिना की जाती है तो वह भी धर्मकार्य की कोटि में समझनी चाहिए। जब मनुष्य दूसरों को आज्ञा न देकर या दूसरों न कराकर स्वयं कष्ट सहकर भी बिना किसी स्वार्थ के दया या अनुकम्पा करता है, तब उसे उस धर्मकार्य में अनोखा आनन्द आता है। अन्तकृद्दशांग सूत्र में कर्मयोगी श्री कृष्ण का जीवन अंकित है। एक बार वे अपने गृहस्थपक्षीय छोटे भाई नवदीक्षित गजकुमार मुनि एवं तीर्थंकर अरिष्टनेमि भगवान् ने दर्शनकर हाथी पर बैठकर जा रहे थे, साथ में अनेकों सेवक थे। रास्ते में उन्होंने एक अत्यन्त जरा-जीर्ण जर्जर वृद्ध को देखा, जो घर के बाहर पड़े एक विशाल ईंटों के ढेर में से बहुत मुश्किल से एक-एक ईंट उठाकर अन्दर रख रहा था। वद्ध को ऐसी दयनीय हालत में देखकर श्रीकृष्ण का हृदय अनुकम्पा से भर आया। उन्होंने हाथी पर बैठे-बैठे ही एक इंट उठाई और जहाँ वह वृद्ध इंटें रख रहा था, वहाँ रख दी। श्रीकृष्ण के हाथ लगते ही उनके सेवकों के हाथ लग गये : बहुत शीघ्र ही वह ईंटों का ढेर वहाँ से उठाकर यथास्थान रख दिया गया। वृद्ध आश्चर्य से गद्गद् होकर देखता रह गया। उसने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और इस उपकार के बदले उनका आभार माना । " श्रीकृष्ण का वृद्ध से कोई स्वार्थ नहीं था । अनुकम्पा से प्रेरित होकर ही उन्होंने यह कार्य किया था। इसे धर्मकार्य नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? पाश्चात्य विचारक रॉबर्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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