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________________ ६४ आनन्द प्रवचन : भाग ११ एण्ड्रयूज मिलिकन (Robert Andrews Millikan) ने ठीक ही कहा है "I conceive the essential task of religion to be to develop the consciences, the ideals and the aspiration of mankind." "मैं सोचता हूँ, धर्म का अत्यावश्यक कार्य-मानवजाति में सद-असद् विवेकबुद्धि, आदर्श और महत्वाकांक्षाएं विकसित करना है।" प्राण देकर पांच व्यक्तियों की रक्षा-कई व्यक्ति इतने सहृदय और कर्तव्यपरायण होते हैं कि दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं । अमेरिका के पश्चिमीतट पर समुद्र में एक जहाज तीव्रगति से चला जा रहा था। किसे पता था कि थोड़ी देर में मौसम परिवर्तन होने से जहाज को बचाना कठिन हो जाएगा। देखते ही देखते सहसा भयंकर तूफान उठा। वह जहाज तूफान के उत्ताल थपेड़ों से टूट गया। उसमें बैठे अनेक खलासी समुद्र में डूबने लगे। जो अच्छी तरह तैरना जानते थे, उनके प्राण बचने की तो कुछ आशा थी, पर जिन्होंने अभी हाथ-पैर चलाना सीखा था, वे समुद्र में तैरकर किनारे तक आ सकेंगे, इसका किसी को विश्वास न था। उस जहाज पर एक हब्शी गुलाम भी सवार था। वह अपने प्राणों की परवाह किये बिना तुरंत समुद्र के अथाह जल में कूद पड़ा। उसने सोचा कि मनुष्य भी अगर मनुष्यों पर संकट के समय सहयोगी नहीं बनेगा तो क्या पशु-पक्षी उसकी सहायता करने आएंगे ? उसके मन में एक बार भी यह विचार नहीं आया कि क्यों जान-बूझकर अपने जीवन को संकट में डाला जाये । उसका विवेक रह-रहकर उसे इस धर्मकार्य के लिए प्रेरित कर रहा था कि दूसरों की सहायता के लिये अपने जीवन को खतरे में डालना पड़े, तो भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । और एकाएक समुद्र में कूदकर उसने कठोर परिश्रम से एक-एक करके पाँच खलासियों को जीवित बचा लिया। अब उसका शरीर थककर चूर-चूर हो गया था। हाथ-पैर काम नहीं करते थे, फिर भी उसमें साहस की किरणें विद्यमान थीं। छठी बार वह कूदना ही चाहता था कि जहाज का कप्तान बोल उठा-"बस, भाई ! अब रहने दो। तुमने तो कमाल कर दिया । जाओ, अब तुम गुलामी से मुक्त हुए।" उसने कहा-"मेरी मुक्ति को अभी थोड़ी देर और प्रतीक्षा कर लेने दो, तब तक एक व्यक्ति की जान और बचा लू।" यों कहकर वह गुलाम पुनः पानी में कूद पड़ा और सचमुच वह सदा के लिए जीवनमुक्त हो गया। मैं आपसे पूछता हूँ, क्या उस अनपढ़, शास्त्रज्ञान से रहित हब्शी गुलाम के इस सद्-असद्विवेक-प्रेरित मानवरक्षा कार्य को आप धर्मकार्य नहीं कहेंगे? उस हब्शी ने यह कार्य किसी फलाकांक्षा, इनाम या अन्य किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर नहीं किया था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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