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________________ धर्मकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं-१ ६५ धर्मपोषक सभी कार्य, धर्मकार्य हैं—जिस तरह निष्कामभाव से की गई उपर्युक्त जीवदया, जीवरक्षा, सेवा, सहायता आदि के कार्य धर्मकार्य हैं, उसी तरह निष्कामभाव से किये गये अहिंसादि धर्म के पोषक अन्य कार्य भी धर्मकार्य हैं। निष्कर्ष यह है कि सद्धर्म की वृद्धि के लिये, धर्म को सुरक्षा के लिए, धर्म से विचलित होते हुए किसी व्यक्ति को स्थिर करने के लिए, अधर्मी या पापी व्यक्ति को उपदेश, सहयोग आदि से धर्मपरायण बनाने के लिए जितने भी प्रयत्न हैं, वे सब धर्मकार्य हैं; बशर्ते कि वे किसी मूढ़स्वार्थ, यशकीर्ति, प्रसिद्धि या साम्प्रदायिकता-पोषण आदि की दृष्टि न किये गये हों। प्राचीनकाल से लेकर आज तक कई जैन आचार्यों, जैन साधु-साध्वियों द्वारा अधर्मी एवं हिंसक व्यक्ति को या दुर्व्यसनी को उस अधर्म या पापकर्म से हटाकर सद्धर्म में लाने के हजारों प्रयत्न हुए हैं, वे प्रयत्न अगर साम्प्रदायिकता से मुक्त हों तो धर्मकार्य में ही परिगणित होंगे। जहाँ तक मेरा ख्याल है, ये सब प्रयत्न किसी यशकीति, तुच्छ स्वार्थ या साम्प्रदायिकता-पोषण के न होकर एकमात्र अधर्मी या पापी को धर्मपथ पर लाने के ही रहे हैं । इसलिए इन अहिंसादि को धर्मकार्य कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । एक सच्ची घटना द्वारा इसे स्पष्ट कर दं प्रसिद्धवक्ता जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज ने अनेकों शराबी, मांसाहारी आदि दुर्व्यसनियों एवं हत्याकर्म करने वाले पापियों तक को उपदेश, प्रेरणा और मार्गदर्शन देकर सद्धर्मपथिक बनाया था। एक बार की घटना है-वे आगरा से मालवा की ओर पधार रहे थे। जब वे कोटाशहर के निकट पहुँचे तो रास्ते में एक खटीक को सोये हुए देखा। उसके पास दो बकरे बंधे हुए थे, इससे उन्होंने अनुमान लगाया कि यह कोई वधिक होगा। जब वह उठा तो जैनदिवाकरजी महाराज ने उसे उपदेश दिया-"भाई ! यह पाप तुम किसलिए करते हो ? तुम्हें पता है मनुष्य को अपने बुरे कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ता है। जैसी पीड़ा तुम्हें होती है, वैसी ही पीड़ा इन मूक प्राणियों को मारने पर इन्हें भी होती है । और फिर हिंसा करने से मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता। अतः तुम इस कर धंधे को छोड़ो । आजीविका के लिए और भी तो सात्त्विक धंधे हैं।" जैन दिवाकर जी म० के उपदेश का उस खटीक पर जादू-सा असर हुआ। उसने कहा-"गुरु महाराज ! आपका कहना बिलकुल सच है । मैं आज से परमात्मा को सर्वव्यापी मानकर सूर्य-चन्द्रमा की साक्षी से यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक जीऊंगा तब तक कभी इस धंधे को नहीं करूंगा । परन्तु आपके साथ जो भक्त हैं, उनसे मेरी प्रार्थना है कि इस समय मेरे पास घर पर ३२ बकरे हैं। इन्हें ये खरीद लें और मुझे रुपये दे दें तो मैं दूसरा कोई सात्विक धंधा अपना लू।" विवेकी एवं धर्मश्रद्धालु श्रावकों ने तुरंत उस खटीक से वे बकरे खरीद लिए और कुछ रुपये ऊपर से उसे भेंट के रूप में दे दिये । इस प्रकार एक हिंसापरायण व्यक्ति को हिंसा छुड़ाकर धर्ममार्ग पर लगाना पवित्र धर्मकार्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004014
Book TitleAnand Pravachan Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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